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________________ श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा श्वेताम्बर आगम साहित्य में जहाँ कृष्ण के जीवनवृत्त का पर्याप्त का निराकरण बताया गया है । यह बात सुस्पष्ट है कि यह रामकथा का रूप से उल्लेख हआ है, वहाँ राम के सम्बन्ध में मात्र उनके एवं उनके उपदेशात्मक जैन संस्करण है और इसलिये इसमें यथासम्भव हिंसा, माता-पिता के नामोल्लेख से अधिक कुछ नहीं मिलता है । समवायांग घृणा, व्यभिचार आदि दुष्प्रवृत्तियों को न उभार कर सद्प्रवृत्तियों को ही के ५४ वें समवाय में तो २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव और उभारा गया है । इसमें वर्ण व्यवस्था पर भी बल नहीं दिया है। यहाँ ९ वासुदेव, ये ५४ उत्तमपुरुष होते हैं, इतना मात्र उल्लेख है, वहाँ शम्बूक-वध का कारण शूद्र का तपस्या करना नहीं है । चन्द्रहास खड्ग इनके नामों का भी उल्लेख नहीं है । यद्यपि समवायांग के ही १५८ वें की सिद्धि के लिये बांसों के झुरमुट में साधनारत शम्बूक लक्ष्मण के सूत्र में बलदेवों और वासुदेवों के वर्तमान भव के नाम, पूर्व भव के द्वारा अनजान में ही मारा जाता है । लक्ष्मण उस पूजित खड्ग को उठाते नाम, वासुदेवों के निदान-कारण और निदान नगरों के नाम और उनके हैं और परीक्षा हेतु बाँसों के झुरमुट पर चला देते हैं, जिससे शम्बूक माता-पिताओं के नाम आदि का उल्लेख है । यहाँ आठवें बलदेव का मारा जाता है । इस प्रकार जहाँ वाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध की नाम पद्म (पउम), आठवें वासुदेव का नाम नारायण और इनके पिता का कथा वर्ण-विद्वेष का खुला उदाहरण है, वहाँ पउमचरिय का शम्बूक वध नाम दशरथ (दसरह) बताया गया है; इसी आधार पर हम इनका अनजान में हुई एक घटना है । पुन: कवि ने राम के चरित्र को उदात्त सम्बन्ध राम-लक्ष्मण से जोड़ सकते हैं । इसमें लक्ष्मण की माता को बनाये रखने हेतु शम्बूक और रावण का वध राम के द्वारा न करवाकर केकई और राम की माता को अपराजिता कहा गया है। लक्ष्मण के द्वारा करवाया है। बालि के प्रकरण को भी दूसरे ही रूप में श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा का प्रथम स्वतन्त्र ग्रंथ, विमलसूरि प्रस्तुत किया गया है। बालि सुग्रीव को राज्य देकर संन्यास ले लेते हैं। का पउमचरिय है । ग्रन्थकार ने वीर-निर्वाण सम्वत् ५३० (ई० सन् ४ दूसरा कोई विद्याधर सुग्रीव का रूप बनाकर उसके राज्य एवं अन्त:पुर या ६४) में इसकी रचना करने का उल्लेख किया है । इस प्रकार लेखक पर कब्जा कर लेता है । सुग्रीव राम की सहायता की अपेक्षा करता है के स्वयं के निर्देश के अनुसार यह प्रथम शताब्दी का ग्रन्थ है । यद्यपि और राम उसकी सहायता कर उस नकली सुग्रीव का वध करते हैं। जैकोबी, प्रो० ध्रुव, पं० परमानन्द शास्त्री आदि कुछ विद्वान् इसे परवर्ती यहाँ भी सुग्रीव के कथानक में से भ्रातृ-द्रोह एवं भ्रातृ-पत्नी से विवाह मानते हैं, फिर भी इसे ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का नहीं माना की घटना को हटाकर उसके चरित्र को उदात्त बनाया गया है । इसी जा सकता है । वाल्मीकि रामायण के बाद रामकथा के स्वतन्त्र ग्रन्थ के प्रकार कैकेयी भरत हेतु राज्य की मांग राम के प्रति विद्वेष के कारण रूप में इसका स्थान प्रथम है । वस्तुत: यह राम-कथा का जैन संस्करण नहीं, अपितु भरत को वैराग्य लेने से रोकने के लिये करती है। राम भी है । ग्रन्थ की अन्त:साक्षियों से सिद्ध होता है कि यह श्वेताम्बर परम्परा पिता की आज्ञा से नहीं अपितु स्वेच्छा से ही वन को चल देते हैं ताकि की रचना है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि इसमें जैन-मुनि वे भरत को राज्य पाने में बाधक नहीं रहे । इस प्रकार कैकेयी के के लिये 'सियम्बर' शब्द का प्रयोग हुआ है । सम्भवत: श्वेताम्बर शब्द व्यक्तित्व को भी ऊँचा उठाया गया है । न केवल यही अपितु सीताहरण के प्रयोग का यह प्राचीनतम उल्लेख है। ग्रंथ की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के प्रकरण में भी मृगचर्म हेतु स्वर्ण मृग मारने के सीता के आग्रह की है, जो श्वेताम्बर परम्परा में आगमेतर ग्रन्थों की भाषा रही है । दिगम्बर घटना को स्थान न देकर राम एवं सीता के चरित्र को निर्दोष और परम्परा के ग्रन्थों का प्रणयन शौरसेनी प्राकृत में हुआ है । सबसे अहिंसामय बनाया गया है । रावण के चरित्र को उदात्त बनाने हेतु यह उल्लेखनीय बात यह है कि ग्रन्थकार के समक्ष वाल्मीकि रामायण के बताया गया है कि उसने किसी मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा ले रखी थी साथ समवायांग का वह मूलपाठ भी रहा होगा जिसमें लक्ष्मण (नारायण) कि मैं किसी परस्त्री का उसकी स्वीकृति के बिना शील भंग नहीं करूंगा। की माता को केकई बताया गया था। लेखक के सामने मूल प्रश्न यह इसलिये वह सीता को समझा कर सहमत करने का प्रयत्न करता है, था कि आगम की प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए, वाल्मीकि के बलप्रयोग नहीं करता है । मांस-भक्षण के दोष दिखाकर सामिष भोजन साथ किस प्रकार समन्वय किया जाये । यहाँ उसने एक अनोखी सूझ से जन-मानस को विरत करना भी जैनधर्म की मान्यताओं के प्रसार का से काम लिया, वह लिखता है कि लक्ष्मण की माता का पितृगृह का ही एक प्रयत्न है । ग्रन्थ में वानरों एवं राक्षसों को विद्याधरवंश के मानव नाम तो कैकेयी था, किन्तु विवाह के पश्चात दशरथ ने उसका नाम बताया गया है, किन्तु यह भी सिद्ध किया गया है कि वे कला-कौशल परिवर्तन कर उसे 'सुमित्रा' नाम दिया । पउमचरिय में भरत की माता को और तकनीक में साधारण मनुष्यों से बहुत बढ़े-चढ़े थे । वे पाद'केगई' कहा गया है । वाल्मीकि रामायण से भिन्न इस ग्रंथ की रचना विहारी न होकर विमानों में विचरण करते थे । इस प्रकार इस ग्रंथ में का मुख्य उद्देश्य काव्यानन्द की अनुभूति न होकर, कथा के माध्यम से विमलसूरि ने अपने युग में प्रचलित रामकथा को अधिक युक्ति संगत धर्मोपदेश देना है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रेणिकचिंता नामक दूसरे उद्देशक और धार्मिक बनाने का प्रयास किया है। में इसका उद्देश्य रामकथा में आई असंगतियों तथा कपोल-कल्पनाओं विमलसूरि के पउमचरिय के बाद रामकथा का एक विवरण हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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