SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 764
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ एक विमर्श ६३३ श्री वृक्षमूल गण, पुत्रागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण आदि से प्राप्त पूर्व में उल्लेखित तीन अभिलेखों को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी श्वे० माथुर संघ का उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन उपरोक्त तीनों अभिलेखों के आधार पर हम यह मानने के लिए विवश हैं कि ग्यारहवींबारहवीं शताब्दी में श्वे० माथुरसंघ का अस्तित्व था । यद्यपि यह बात भ है कि यह माथुरसंघ श्वेताम्बर मुनियों का कोई संगठन न होकर मथुरा के श्वेताम्बर श्रावकों का एक संगठन था और यही कारण है कि श्वे० माथुर संघ के अभिलेख मथुरा से अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं हुए। यदि श्वेताम्बर माथुर संघ मुनियों का कोई संगठन होता तो इसका उल्लेख मथुरा से अन्यत्र अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से मिलना चाहिए था । पुनः इन तीनों अभिलेखों में मुनि और आचार्य के नामों के उल्लेख का अभाव यही सूचित करता है कि यह श्रावकों का संघ था। अनेक गणों में विभक्त हुई, फिर भी सबने अपने साथ मूलगण शब्द कायम रखा। जब इन विभिन्न मूल गणों को कोई एक संयुक्त नाम देने का प्रश्न आया तो उन्हें मूलसंघ कहा गया। कई गणों द्वारा परवर्तीकाल में संघ नाम धारण करने के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। पुनः यापनीय ग्रन्थों के साथ लगा हुआ 'मूल' विशेषण-जैसे मूलाचार, मूलाराधना आदि भी इसी तथ्य का सूचक है कि 'मूलसंघ' शब्द का सम्बन्ध यापनीयों से रहा है। अतः नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं में उल्लेखित मूलसंघ यापनीय परम्परा का ही पूर्व रूप है। उत्तर भारत के निर्मन्य संघ की यह धारा जब पहले दक्षिण भारत में पहुंची तो मूलसंघ के नाम से अभिहित हुई और उसके लगभग १०० वर्ष पक्षात् इसे यापनीय नाम मिला। हम यह भी देखते हैं कि उसे यापनीय नाम मिलते ही अभिलेखों से मूलसंघ नाम लुप्त हो जाता है और लगभग चार सौ पचास वर्षों तक हमें मूलसंघ का कहीं कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। नोणमंगल की ई० सन् ४२५ की ताम्र पट्टिकाओं के पश्चात् कोन्नूर के ई० सन् ८६० के अभिलेख में पुनः मूलसंघ का उल्लेख देशीयगण के साथ मिलता है। ज्ञातव्य है कि इस अभिलेख में मूलसंघ के साथ देशीयगण और पुस्तकंगच्छ का उल्लेख है किन्तु कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले यह लेख ताम्रपट्टिका पर था बाद में १२वीं शती में इसमें कुछ अंश जोड़कर पत्थर पर अंकित करवाया गया इस जुड़े हुए अंश में ही कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है। इसके दो सौ वर्ष पश्चात् से यापनीयगण और द्राविड़ आदि अन्य गण सभी अपने को मूलसंघीय कहते प्रतीत होते हैं। इतना निश्चित है कि मूलसंघ के साथ कुन्दकुन्दान्वय सम्बन्ध भी परवर्ती काल में जुड़ा है यद्यपि कुन्दकुन्दान्वय का सर्वप्रथम अभिलेखीय उल्लेख ई० सन् ७९७ और ८०२ में मिलता है१२, किन्तु इन दोनों लेखों में पुस्तकगच्छ और मूलसंघ का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य है कि साहित्यिक स्त्रोतों में तो दशवीं शती के पूर्व मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। वस्तुतः कुन्दकुन्द शुद्ध आचार के प्रतिपादक एवं प्रभावशाली आचार्य थे और मूलसंघ महावीर की प्राचीन मूलधारा का सूचक था, अतः परवर्तीकाल में सभी अचेल परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना उचित समझा। मात्र उत्तर भारत का काष्ठासंघ और उसका माथुरगच्छ ऐसा था जिसने अपने को मूलसंघ एवं कुन्दकुन्दान्वय से जोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि काष्ठासंघ मुख्यतः उत्तर भारत से सम्बद्ध था और इस क्षेत्र में १२-१३वीं शती तक कुन्दकुन्दान्वय का प्रभाव अधिक नहीं था। वस्तुतः मूलसंघ मात्र एक नाम था जिसका उपयोग ९ १०वीं शती से दक्षिण भारत की अचेल परम्परा की सभी शाखायें करने लगी थीं। शायद उत्तर भारत की सचेल परम्परा भी अपनी मौलिकता सूचित करने हेतु इस विरुद् का प्रयोग करने लगी हो । जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें माथुरसंघ नामक एक मुनि संघ था और उसकी उत्पत्ति विक्रम संवत् ९५३ में आचार्य रामसेन से मानी जाती है। माथुरसंघ का साहित्यिक उल्लेख इन्द्रनंदी के श्रुतावतार और देवसेन के दर्शनसार में मिलता है। इन्द्रनन्दी ने इस संघ की गणना जैनाभासों में की है और निष्चिच्छिक के रूप में इसका उल्लेख किया है। देवसेन ने भी दर्शनसार में इसे निष्चिच्छिक बताया है। यद्यपि इसकी उत्पत्ति विक्रम सं०९५३ में बताई गई है किन्तु उसका सर्वप्रथम साहित्यिक उल्लेख अमितगति के सुभाषितरत्नसंदोह में मिलता है जो कि मुंज के शासन काल में (विक्रम १०५०) में लिखा गया। सुभाषितरत्नसंदोह के अतिरिक्त वर्धमाननीति, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, तत्त्वभावना, उपासकाचार आदि भी इनकी कृतियां है। अभिलेखीय स्त्रोतों की दृष्टि से इस संघ का सर्वप्रथम उल्लेख विक्रम सं. १९६६ में अयुर्ना के अभिलेख में मिलता है। दूसरा अभिलेखीय उल्लेख १२२६ के बिजोलिया के मन्दिर का है, इसके बाद के अनेक अभिलेख इस संघ के मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि अपनी उत्पत्ति के कुछ ही वर्ष बाद यह संघ काष्ठासंघ का एक अंग बन गया और परवर्ती उल्लेख काष्ठासंघ की एक शाखा माथुरगच्छ के रूप में मिलते हैं। यदि हम काल की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि श्वे. माथुरसंघ और दिगम्बर माथुरसंघ की उत्पत्ति लगभग समकालीन है। क्योंकि वे० माथुरसंघ के उल्लेख भी ११-१२वीं शताब्दी में ही मिलते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में खरतर, तपा, अचल आदि महत्त्वपूर्ण गच्छों का उद्भव काल भी यही है, फिर भी इन गच्छों में माथुर संघ का स्पष्ट अभाव होने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि माथुर संघ वे० जैन मुनियों का सगठन न होकर मथुरा निवासी श्वे० श्रावकों का एक संगठन था। आश्चर्य यह भी है कि इन अभिलेखों में श्वे० माथुरसंघ का उल्लेख होते हुए भी कहीं किसी मुनि या आर्या का नामोल्लेख नहीं है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्वे० माथुरसंघ मथुरा के श्रावकों काही एक संगठन था । श्वेताम्बरों में आज भी नगर के नाम के साथ संघ शब्द जोड़कर उस नगर के श्रावकों को उसमें समाहित किया जाता है। अतः निष्कर्ष यही है कि वे० माथुरसंघ मथुरा के आवकों का संघ था माथुर संघ माथुरसंघ भी मुख्यतः दिगम्बर परम्परा का ही संघ है मथुरा और उसका मुनि परम्परा अथवा उनके गच्छों से कोई सम्बन्ध नहीं था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy