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________________ श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ : एक विमर्श ६३१ ओर हुआ है किन्तु मुझे जितनी आपत्ति 'मूल पाठ' को मानने में हैं उससे देवनिर्मित मानने की परम्परा थी। सातवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं अधिक आपत्ति उनके 'माथुर' पाठ को मानने में है क्योंकि 'मूल पाठ' शताब्दी तक के अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस स्तूप को देवनिर्मित कहा मानने में तो केवल 'ऊ' की मात्रा का अभाव प्रतीत होता है जबकि माथुर गया है। प्रो. के.डी. बाजपेयी ने जो यह कल्पना की है कि इन मूर्तियों पाठ मानने में 'आ' की मात्रा के अभाव के साथ-साथ 'र' का भी अभाव को श्री देवनिर्मित कहने का अभिप्राय श्री देव (जिन) के सम्मान में इन खटकता है। इस सम्बन्ध में अधिक निश्चितता के लिए मैं डॉ. शैलेन्द्र मूर्तियों का निर्मित होना है-वह भ्रांत है। उन्हें देवनिर्मित स्तूप स्थल पर कुमार रस्तोगी से सम्पर्क कर रहा हूँ और उनके उत्तर की प्रतीक्षा है। साथ प्रतिष्ठित करने के कारण देवनिर्मित कहा गया है। ही स्वयं भी लखनऊ जाकर उस प्रतिमा लेख का अधिक गम्भीरता से श्वे. साहित्यिक स्रोतों से यह भी सिद्ध होता है कि जिनभद्र, अध्ययन करने का प्रयास करूंगा और यदि कोई स्पष्ट समाधान मिल हरिभद्र, बप्पभट्टि, वीरसूरि आदि श्वेताम्बर मुनि मथुरा आये थे। हरिभद्र सका तो पाठकों को सूचित करूँगा। ने यहाँ महानिशीथ आदि ग्रन्थों के पुनर्लेखन का कार्य तथा यहाँ के स्तूप मुझे दु:ख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आदरणीय और मन्दिरों के जीर्णोद्वार के कार्य करवाये थे। ९वीं शती में बप्पभट्टिसरि प्रो. के.डी. बाजपेयी का स्वर्गवास हो गया है। फिर भी पाठकों को स्वयं के द्वारा मथुरा के स्तूप एवं मन्दिरों के पुनर्निर्माण के उल्लेख सुस्पष्ट हैं। जानकारी प्राप्त करने के लिए यह सूचित कर देना आवश्यक समझता इस आधार पर मथुरा में श्वे. संघ एवं श्वे. मन्दिर की उपस्थिति निर्विवाद हूँ कि यह जे. १४३ क्रम की प्रतिमा लखनऊ म्यूजियम के प्रवेश द्वार रूप से सिद्ध हो जाती है। से संलग्न प्रकोष्ठ के मध्य में प्रदर्शित है। इसकी ऊंचाई लगभग ५ फीट अब मूल प्रश्न यह है कि क्या श्वेताम्बरों में कोई मूलसंघ और है। जे. १४३ क्रम की प्रतिमा के अभिलेख के 'मूल' और 'माथुर' शब्द माथुर संघ था और यदि था तो वह कब, क्यों और किस परिस्थिति में के वाचन के इस विवाद को छोड़कर तीनों प्रतिमाओं के अभिलेखों के अस्तित्व में आया? वाचन में किसी भ्रांति की संभावना नहीं है। उन सभी प्रतिमाओं में श्वेताम्बर शब्द स्पष्ट है। माथुर शब्द भी अन्य प्रतिमाओं पर स्पष्ट ही है, फिर भी मूलसंघ और श्वेताम्बर परम्परा यहाँ इस सम्बन्ध में उठने वाली अन्य शंकाओं पर विचारकर लेना मथुरा के प्रतिमा क्रमांक जे. १४३ के अभिलेख के फ्यूरर के अनुपयुक्त नहीं होगा। यह शंका हो सकती है कि इनमें कहीं श्वेताम्बर वाचन के अतिरिक्त अभी तक कोई भी ऐसा अभिलेखीय एवं साहित्यिक शब्द को बाद में तो उत्कीर्ण नहीं किया गया है? किन्तु यह संभावना प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि निम्न आधारों पर निरस्त हो जाती है: श्वेताम्बर परम्परा में कभी मूल संघ का अस्तित्व रहा है। जैसा कि हम १. ये तीनों ही प्रतिमाएं मथुरा के उत्खनन के पश्चात् से पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि इस अभिलेख वाचन के सम्बन्ध में भी शासनाधीन रही हैं। अत: उनके लेखों में परवर्ती काल में किसी परम्परा दो मत हैं-फ्यूरर आदि कुछ विद्वानों ने उसे 'श्री श्वेताम्बर मूलसंघेन' पढ़ा द्वारा परिवर्तन की संभावना स्वत: ही निरस्त हो जाती है। पुनः है, जबकि प्रो. के.डी. बाजपेयी ने इसके 'श्री श्वेताम्बर (माथुर) संघेन' 'श्वेताम्बर' मूल संघ और माथुर संघ तीनों ही शब्द अभिलेखों के मध्य होने की सम्भावना व्यक्त की है। में होने से उनके परवर्तीकाल में उत्कीर्ण किये जाने की आशंका भी सामान्यतया मूलसंघ के उल्लेख दिगम्बर परम्परा के साथ समाप्त हो जाती है। ही पाये जाते हैं। आज यह माना जाता है कि मूलसंघ का सम्बन्ध २. प्रतिमाओं की रचनाशैली और अभिलेखों की लिपि एक दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्दान्वय से रहा है। किन्तु यदि अभिलेखीय ही काल की है। यदि लेख परवर्ती होते तो उनकी लिपि में स्वाभाविक और साहित्यिक साक्ष्यों पर विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि मूलसंघ रूप से अन्तर आ जाता। का कुन्दाकुन्दान्वय के साथ सर्वप्रथम उल्लेख दोड्ड कणगालु के ईस्वी ३. इन प्रतिमाओं के श्वेताम्बर होने की पुष्टि इस आधार पर सन् १०४४ के लेख में मिलता है। यद्यपि इसके पूर्व भी मूलसंघ भी हो जाती है कि प्रतिमा क्रम जे. १४३ के नीचे पादपीठ पर दो मुनियों तथा कुन्दकुन्दान्वय के स्वतंत्र उल्लेख तो मिलते है, किन्तु मूलसंघ का अंकन है। उनके पास मोरपिच्छी के स्थान पर श्वे. परम्परा में प्रचलित के साथ कुन्दकुन्दान्वय का कोई उल्लेख नहीं है। इससे यही फलित ऊन से निर्मित रजोहरण प्रदर्शित है। होता है कि लगभग ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में कुन्दकुन्दान्वय ने ४. उत्खनन से यह भी सिद्ध हो चुका है कि मथुरा के स्तूप मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है और अपने को मूलसंघीय के पास ही श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अलग मन्दिर थे। कहना प्रारम्भ किया है। जहाँ दिगम्बर परम्परा का मन्दिर पश्चिम की ओर था, वहीं श्वेताम्बर मन्दिर द्राविडान्वय (द्रविड संघ) जिसे इन्द्रनन्दी ने जैनाभास कहा स्तूंप के निकट ही था। था, भी अङ्गडि के सन् १०४० के अभिलेख में अपने को मलसंघ ५. इन तीनों प्रतिमाओं के श्वे. होने का आधार यह है कि तीनों से जोड़ती है।५ ही प्रतिमाओं में श्री देवनिर्मित शब्द का प्रयोग हुआ है। श्वेताम्बर यही स्थिति यापनीय सम्प्रदाय के गणों की भी है। वे भी साहित्यिक स्त्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें मथुरा के स्तूप को ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अपने नाम के साथ मूलसंघ शब्द का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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