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________________ जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय ६१९ शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग दक्षिण भारत में मृगेशवर्मन् के ईसा की जिनकल्प का विच्छेद हो गया । शिवभूति ने कहा-मैं जिनकल्प का पाँचवी शताब्दी के एक अभिलेख में मिलता है३६ । किन्तु उत्तर भारत आचरण करूँगा, उपधि के परिग्रह से क्या लाभ? क्योंकि परिग्रह के में इससे पूर्व यह सम्प्रदाय अपनी जड़ें जमा चुका होगा। संभावना यह सद्भाव में कषाय, मूर्छा आदि अनेक दोष हैं । आगम में भी अपरिग्रह है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर इसे बोटिक कहने लगे होंगे किन्तु यह अपने का उल्लेख है, जिनेन्द्र भी अचेल थे अत: अचेलता सुन्दर है। इस पर आपको पंचस्तूपान्वय प्रकट करता रहा होगा क्योंकि अचेलक परम्परा आचार्य ने उत्तर दिया कि शरीर के सद्भाव में भी कभी-कभी कषाय, में जिसका एक अंग यापनीय भी है, परम्परा के विभेद सूचक शब्दों में मूर्छा आदि होते हैं तब तो देह का भी परित्याग कर देना चाहिए, सबसे प्राचीन यही है । संभावना यही है कि इसी पंचस्तूपान्वय नाम को आगम में अपरिग्रह का जो उपदेश दिया गया है उसका तात्पर्य यह है लेकर यापनीयों ने दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा और वहाँ इन्हें कि धार्मिक उपकरणों में मूर्छा नहीं रखना चाहिए । जिन भी एकान्त श्वेताम्बरों द्वारा निष्कासित मानकर दिगम्बर परम्परा द्वारा यापनीय नाम रूप से अचेलक नहीं हैं, क्योंकि सभी जिन एक वस्त्र लेकर दीक्षित दिया गया होगा। होते हैं । गुरु के इस प्रकार प्रतिपादित करने पर भी शिवभूति कर्मोदय के कारण वस्त्रों का त्याग करके संघ से पृथक हो गया। उसे वन्दन यापनीय सम्प्रदाय का जीवन-काल करने हेतु आई उसकी बहन उत्तरा भी उसका अनुसरण कर अचेल हो साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से हम स्पष्ट रूप से इस गई । किन्तु भिक्षार्थ नगर में आने पर गणिका ने उसे देखा और कहा निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यापनीय सम्प्रदाय विक्रम संवत् की द्वितीय कि इस प्रकार लोग हमसे विरक्त हो जायेगें या हमारे प्रति आकर्षित शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आया क्योंकि आवश्यकमूलभाष्य नहीं होंगे। उसने उत्तरा के उर में वस्त्र बांध दिया। यद्यपि उसने वस्त्र की यापनीयों की उत्पत्ति वीर निर्वाण संवत् ६०९ बताता है और तब से अपेक्षा नहीं की, कितु शिवभूति ने कहा कि इसे देवता का दिया हुआ लेकर विक्रम संवत् की १५वीं शताब्दी तक इसका अस्तित्व रहा । इस मानकर ग्रहण करो । शिवभूति के दो शिष्य हुए कौडिन्य और कोट्यवीर । तथ्य की कागबाड़े से प्राप्त शक संवत् ३१६ अर्थात् विक्रम संवत् इन शिष्यों से उसकी पृथक् परम्परा आगे बढ़ी२६ । ४५१ के इस सम्प्रदाय के अन्तिम अभिलेख से पुष्टि होती है । इस अर्धमागधी आगम साहित्य एवं मथुरा के अंकन से ज्ञात अभिलेख में यापनीय संघ के आचार्यों- धर्मकीर्ति और नागकीर्ति का होता है कि आर्यकृष्ण के समय में मुनि नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्र उल्लेख है । अत: ऐतिहासिक दृष्टि से यह सम्प्रदाय लगभग १३०० खण्ड का उपयोग करते थे३८ । सम्भवत: शिवभूति का इसी प्रश्न पर वर्षों तक जीवित रहा। आर्य कृष्ण से विवाद हुआ होगा। इस कथा में भी मतभेद का मुख्य कारण वस्त्र एवं उपधि का ग्रहण ही माना गया है । कथानक के अन्य यापनीय संघ की उत्पत्ति-कथा तथ्यों में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है। यह सम्भव है कि यापनीयों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर शिवभूति द्वारा अचेलकता को ग्रहण करने पर उनकी बहन एवं सम्बन्धित दोनों ही सम्प्रदायों में कथायें उपलब्ध होती हैं । श्वेताम्बर परम्परानुसार साध्वियों ने भी अचेलकत्व का आग्रह किया होगा किन्तु शिवभूति ने रथवीरपुर नगर के दीपक नामक उद्यान में आर्यकृष्ण नामक आचार्य का साध्वियों की अचेलकता को उचित न समझकर कहा हो कि जिस आगमन हुआ । उस नगर में सहस्रमल्ल शिवभूति निवास करता था। प्रकार तीर्थंङ्गर देवदूष्य नामक वस्त्र ग्रहण करते हैं उसी प्रकार साध्वियों प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के पश्चात् घर आने के कारण उसका अपनी माता को भी देवता का दिया हुआ मानकर एक वस्त्र ग्रहण करना चाहिए । और पत्नी से कलह होता था। एक बार रात्रि में विलम्ब से आकर द्वार इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में बोटिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो खुलवाने पर उसकी माता ने द्वार न खोलते हुए कहा इस समय जहां कथा मिलती है वह साम्प्रदायिक अभिनिवेश से पूर्णतया मुक्त तो नहीं द्वार खुला हो वहीं चले जाओ। निराश होकर नगर में घूमते समय उसे है- फिर भी इतनी सत्यता अवश्य है कि बोटिक अचेलकता के प्रश्न मुनियों का निवास-द्वार दिखाई पड़ा। उसने अन्दर जाकर मुनियों का को लेकर तत्कालीन परम्परा से अलग हुए थे तथा उन्होंने साध्वियों के वन्दन किया और प्रव्रजित होने की आकांक्षा व्यक्त की। पहले आचार्य लिए एक वस्त्र रखना मान्य किया था । कथानक का शेष भाग सहमत नहीं हुए परन्तु स्वयं उसके केश-लुञ्चन कर लेने पर आचार्य ने साम्प्रदायिक अभिनिवेश की रचना है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी उसे मुनिलिङ्ग प्रदान किया । एक बार रथवीरपुर आगमन पर राजा ने सत्यता इस अर्थ में है कि आर्यकृष्ण और शिवभूति काल्पनिक व्यक्ति उसे बहुमूल्य रत्नकम्बल भेंट किया । आचार्य ने इसके ग्रहण करने पर न होकर ऐतिहासिक व्यक्ति हैं क्योंकि उनका उल्लेख कल्पसूत्र की आपत्ति की, उन्होंने शिवभूति को बिना बताये ही रत्नकम्बल का आसन स्थविरावली में मिलता है। अज्जकण्ह (आर्यकृष्ण) का उल्लेख मथुरा निर्मित कर लिया। इस कारण आचार्य और शिवभूति में मतभेद उत्पन्न के अभिलेख में भी है।९। हो गया। एक बार आचार्य द्वारा जिनकल्प का वर्णन करते समय उसने दिगम्बर परम्परा में यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो वर्तमान में जिनकल्प का आचरण न करने और अधिक उपधि (परिग्रह) कथानक उपलब्ध होते हैं । देवसेन (लगभग ई० सन् की दसवीं रखने का कारण पूछा ? आचार्य ने उत्तर दिया- जम्बू स्वामी के पश्चात् शताब्दी) के दर्शनसार नामक ग्रन्थ के २९वीं गाथा के अनुसार श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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