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________________ प्रयोग सर्वथा निषिद्ध ही माना जाये। के प्रभाव से समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं और इन्हीं __इस प्रकार विशिष्ट नियंत्रणों के साथ ही वाहन प्रयोग और परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अस्तित्व में आये विदेश यात्रा की अनुमति अपवाद् मार्ग के रूप में मानी जा सकती हैं। यदि हम उनके इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को तटस्थ दृष्टि से समझने है। उसे सामान्य नियम कभी भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि का प्रयत्न करेगें तो विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति गलतफहमियाँ दूर होंगी भूतकाल में भी वह एक अपवाद मार्ग ही था। इस प्रकार आचार मार्ग और जैन धर्म के मूलधारा में रहे हुए एकत्व का दर्शन कर सकेगें। में युगानुरूप परिवर्तन तो किये जो सकते हैं परन्तु उनकी अपनी साम्प्रदायिक सद्भाव और एक दूसरे को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उपयोगिता होनी चाहिए और उनसे जैन धर्म के शाश्वत मूल्यों पर कोई इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आज महती आवश्यकता है। आज हम इसे आंच नहीं आनी चाहिए। अपनाकर अनेक पारस्परिक विवादों का सहज समाधान पा सकेगें। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में देश और काल जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत समग्र एवं संश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता प्रभाव को सम्यक् प्रकार से समझना होगा। भारत के सांस्कृतिक इतिहास भारतीय संस्कृति के सम्यक् ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह को समझने और उसके प्रामाणिक लेखन के लिए एक समग्र किन्तु आवश्यक है कि उसकी प्रकृति को पूरी तरह से समझ लिया जाये। सबसे देशकाल सापेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जहाँ एक ओर विश्लेषणात्मक वस्तुत: कोई भी विकसित संस्कृति संश्लिष्ट संस्कृति ही होती है क्योंकि दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर एक समग्र दृष्टिकोण उसके विकास में अनेक संस्कृतियों का अवदान होता है। भारतीय संस्कृति (Holistice-Approach) भी आवश्यक है। भारतीय ऐतिहासिक को हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि चारदीवारी में अवरुद्ध करके कभी भी सम्यक् अध्ययन का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे विभिन्न धर्मों और परम्पराओं रूप से नही समझा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को खण्ड-खण्ड का एक घेरे में आबद्ध करके अथवा उसके विभिन्न पक्षों को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, ठीक करके देखने का प्रयत्न हुआ है। अपनी आलोचक और विश्लेषणात्मक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को खण्डों में विभाजित करके देखने से दृष्टि के कारण हमने एक दूसरे की कमियों को ही अधिक देखा है। मात्र उसकी आत्मा ही मर जाती है। अध्ययन की दो दृष्टियाँ होती हैं- यही नहीं, एक परम्परा में दूसरी परम्परा के इतिहास को और उसके जीवन विश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक। विश्लेषणात्मक पद्धति तथ्यों को मूल्यों को भ्रान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। खण्डों में विभाजित करके देखती है, तो संश्लेषणात्मक विधि उसे समग्र भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में पहली भूल तब हुई रुप से देखती है। भारतीय संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए यह जब दूसरी परम्पराओं को अपनी परम्परा से निम्न दिखाने के लिए उन्हें आवश्यक है कि इसके विभिन्न घटकों अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और जैन गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक परम्परा की अगली पीढ़ियाँ दूसरी परम्पराओं का समन्वित या समग्र रूप में अध्ययन किया जाये। जिस प्रकार परम्परा के उस गलत प्रस्तुतीकरण को ही आगे बढ़ाती रहीं। दूसरे शब्दों एक इंजन की प्रक्रिया को समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों में कहें तो भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भारतीय दर्शन में प्रत्येक अर्थात् कल-पुओं का ज्ञान आवश्यक है, अपितु उनके परस्पर संयोजित पक्ष ने दूसरे पक्ष का विकृत चित्रण ही प्रस्तुत किया। मध्यकालीन दार्शनिक स्वरूप को तथा एक अंग की क्रिया के दूसरे अंग पर होने वाले प्रभाव ग्रंथों में इस प्रकार का चित्रण हमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है। को भी समझना होता है। सत्य तो यह है कि भारतीय इतिहास के शोध सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब पाश्चात्य इतिहासकार इस देश में के सन्दर्भ में अन्य सहवर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना भारतीय आये और यहाँ के इतिहास का अध्ययन किया तो उन्होंने भी अपनी संस्कृति का समग्र इतिहास प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। संस्कृति से भारतीय संस्कृति को निम्न सिद्ध करने के लिए विकृत पक्ष कोई भी धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नही होती हैं, को उभार कर इसकी गरिमा को धूमिल ही किया। फिर भी पाश्चात्य लेखकों वे अपने देश-काल तथा अपनी सहवर्ती अन्य परम्पराओं से प्रभावित में कुछ ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने इसको समग्र रूप में प्रस्तुत करने होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करती है। यदि हमें जैन, बौद्ध या हिन्दू का प्रयत्न किया और एक के ऊपर दूसरी परम्परा के प्रभाव को देखने किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा के इतिहास का अध्ययन करना है का भी प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए तो उनके देशकाल और परिवेश को तथा उनकी सहवर्ती परम्पराओं के भारतीय संस्कृति की एक धारा को दूसरी धारा के विरोध में खड़ा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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