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________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव ६०९ और इतिहास' में चैत्यवास और बनवास के शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत प्रशाखाएं भी बनीं, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन का शिकार रहा। है कि इन विरोधों के बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका। मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र मे जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं तन्त्र और भक्ति मार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल, आबू का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क स्थापत्य कला जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, के मंदिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएं भी इन्हीं शताब्दियों कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरी, हेमचन्द्र, काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ, जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की विद्यानन्दी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैन धर्म पर भी तन्त्र का प्रभाव के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आया। हिन्दू परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षी आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों में साहित्य एवं कलात्मक अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमंडल का सदस्य स्वीकार कर मंदिरों का निर्माण तो किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लिये अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थंकर तो वीतराग था अत: वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलत: सुधारवादी आंदोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों का आविर्भाव जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी जैन परम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुनः सोलहवीं शताब्दी देकर अपने को युग-विद्या के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार में आयी। जब अध्यात्म प्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म-काण्ड के घोर भक्ति मार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र मार्ग के आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के संयुक्त प्रभाव से जिन मंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्ति पूजा के प्रति आस्थाएं विचलित हो रही थीं, के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन प्रतिमा की हिन्दू परम्परा तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल भांति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दू धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी वीतराग जिनप्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैन धर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बर युक्त पूजा-पद्धति कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा का विरोध किया। फलतः जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही तीर्थंकर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त तरणतारण तथा दिगम्बर परम्परा भी इस से बच न सकी। बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मंत्र-तंत्र का प्रवेश उनमें भी थे किन्तु उनका सुधारवादी आंदोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। हो गया था। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र जल त्याग पर आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोंकागच्छ के बल दिया गया। नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ में स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई । जिसका पुनः एक विभाजन १८वीं जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहगामी शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवन दृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ। कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि दिगम्बर परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक परम्परा के सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित्त द्रव्यों से जिन-प्रतिमा के तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा- पूजन का निषेध किया किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक Jain Education 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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