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________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव में दीक्षित होकर महावीर के पास आया था। फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण परम्परा थी जिसके श्रमण भी जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। जैन और आजीवक दोनों परम्पराएं प्रतिस्पर्धी होकर भी एक दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों के षविध वर्गीकरण से होती है। निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के श्रमणों से ऊपर और आजीवक परम्परा से नीचे स्थान दिया गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्धन्य संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निर्बन्ध परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्मन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है। वस्त्रधारी श्रावक कहा गया, वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि बौद्ध परम्परा में श्रमण (भिक्षु) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी इस Jain Education International संबंध में गम्भीर चिन्तन की आवश्कता है। निर्ग्रन्ध परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघ भेद महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जामालि से उनका वैचारिक मतभेद होना और जामालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ से अलग होना है भगवती, आवश्यक निर्युक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। निर्धन्य संघ भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध पिटक साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थ संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुंचती है। किन्तु पिटक साहित्य में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई चर्चा नहीं है। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर हुआ होगा । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद है। दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को श्वेताम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि बौद्धों ने जैनों के वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद को पिटकों के सम्पादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना के साथ जोड़ दिया हो मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न रखने वाले श्रमणों के बीच हुआ होगा, क्योंकि पार्श्वापत्यों के महावीर के निर्धन्य संघ में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सबस्त्र ऐसे दो वर्ग अवश्य ही बन गये होंगे और महावीर भ्रमणों के इन दो वर्गों को सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र धारी के रूप में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे होंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत उत्तर और दक्षिण के निर्धन्य श्रमणों में आधार भेद निर्ग्रन्थ संघ की धर्म प्रसार यात्रा भगवान महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और नियुक्तियों की रचना तथा तीर्थकरों की अवधारणा के विकास काल तक उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी । तीर्थंकरों के कल्याण क्षेत्र भी यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थंकर हैं जिनका संबंध शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत माना गया है किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें। जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले है उससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्य संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण बिहार एवं बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा सुमात्रा आदि) की यात्राएं कीं। लगभग ई०पू० दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्मन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु में लगभग ई०पू० प्रथम द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ संघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो, तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करने दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है क्योंकि जो अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी सातवीं शती का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम में विलुप्त हो गयी है किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में रात्रि भोजन निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। ६०५ दक्षिण में गया निर्ग्रन्थ संघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन साहित्य तो नहीं ले जा सका क्योंकि उस काल तक जैनागम साहित्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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