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________________ ५९६ केही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्ति-प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति प्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग है। वस्तुतः कोई भी संस्कृति ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएं भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग हैं, जैसे हिन्दू परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से । भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी अभी तक हिन्दू धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? वस्तुतः हिन्दू परम्परा कोई एक धर्म और दर्शन न होकर व्यापक परम्परा का नाम है या कहें कि वह अभित्र वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं का समूह है। उसमें ईश्वरवाद - अनीश्वरवाद, द्वैतवाद अद्वैतवाद, प्रवृत्ति निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अतः हिन्दू उसी अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है जैसे यहूदी, ईसाई या मुसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्परा है, एक सांस्कृतिक धारा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ अतः जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी हैं जिसके औपनिषदिक ऋषि उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं हैं, इसी माटी की सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषदिक धारा किसी एक ही मूल स्रोत के विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषकि, बौद्ध और जैन धर्मों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने भाव, शब्द-योजना और भाषा शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के निकट हैं। आचारांग में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। आचारांग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्द्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे आचारांग उत्तराध्ययन Jain Education International , आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हैं, किन्त वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है। उसमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों यथा विदेहनामि बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार-परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांग की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचार-मार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार-नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। ( इसी सन्दर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ ई०पू० चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्का, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोशाल, संजय (वेलिडिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को अर्हत् ऋषि या ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का उद्गम स्त्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्त्रोत एक ही है। औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्त्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैन धर्म के ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न परम्पराओं के जिन स्थविरों के उपदेश संकलित हैं। उसमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें एक वर्धमान महावीर) भी हैं। यह सब इस तथ्य का सूचक है कि भारतीय चिन्तन धारा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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