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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर खड़ा है वह डॉ० सागरमल जैन का प्रयत्न एवं पुरुषार्थ ही है जिसने इसे इस स्तर तक पहुंचाया। विद्यापीठ को इतना स्वच्छ, शांत एवं मनोरम बनाने में इनका अवदान कम नहीं है । सहजता की प्रतिमूर्ति डॉ० जैन के पास जो भी आया उसका उन्होंने खुले हृदय से स्वागत किया और अपना बना लिया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति से मैं यह अपेक्षा रखता हूँ कि डॉ० सागरमल जैन को सक्रिय रूप से इस विद्यापीठ से आजीवन के लिए बांध दे क्योंकि हमलोग जो विद्यापीठ से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं, डॉ० सागरमल जैन के बिना विद्यापीठ को उजड़ा हुआ सा अनुभव करते हैं। भगवान विश्वनाथ से मेरी प्रार्थना है कि डॉ० सागरमल जैन दम्पति को स्वस्थ, सानन्द रखते हुए दीर्घायु दें ताकि विद्यापीठ का उत्तरोत्तर विकास हो । • अध्यक्ष, दर्शन एवं धर्म विभाग, का० हि० वि० वि०, वाराणसी। प्रेरणापुरुष : डॉ० सागरमल जैन डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जैन धर्म-दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् सौम्यता, सरलता एवं मृदुता के पर्याय श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ० सागरमल जैन के व्यक्तित्व को शब्दों की परिसीमाओं में बाँधना मेरे लिए असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है, क्योंकि आपके व्यक्तित्व के कैनवास पर एक साथ अनेकों गुण-रंग उभरते हैं और प्रत्येक गुण एक-दूसरे से बढ़कर हैं । इतने उदात्त चित्त, निरहंकार चेता एवं सहज विद्वान् विरले ही होते हैं । मैं अपने आप को अति सौभाग्यशाली मानता हूँ कि आपके चरण-सान्निध्य में मुझे जैन विद्या का ज्ञान प्राप्त करने का सुअवसर मिल सका । प्रथम बार आपसे मेरा साक्षात्कार १९८९ में हआ जब मैं पार्श्वनाथ विद्यापीठ में उसी वर्ष प्रारम्भ होने वाले जैन विद्या पत्रोपाधि (डिप्लोमा) कोर्स के लिए पंजीकृत हुआ। एक आदर्श गुरु के रूप में आपको पाकर जैन विद्या के अध्ययन की मेरी अभिलाषा उतरोत्तर बढ़ती ही गयी और संस्थान से मैंने जैन विद्या में पत्रोपाधि एवं उच्च पत्रोपाधि प्राप्त की । आज जैन धर्म-दर्शन या जैन विद्या के क्षेत्र में मेरा जो कुछ भी चंचुप्रवेश है वह आपके कुशल निर्देशन एवं समुचित मार्ग-दर्शन का परिणाम है । ऐसे गुरु की गुरुता मेरे लिए शब्दाभिव्यक्ति से परे महज अनुभवजन्य है । आप सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति तो हैं ही साथ ही भावना के सागर हैं । आप धर्म के बाह्याडम्बरों के कट्टर विरोधी एवं धर्म एवं दर्शन को जीवन जीने की कला मानने के पक्षधर हैं । जैन विद्या में गहरी पैठ के कारण आज आप जैन विद्वानों में शीर्षस्थ हैं । सिद्धान्त को व्यवहार में आचरित किये बिना सिद्धान्त को महज वाग्जाल मानने वाले श्रद्धेय गुरुवर्य की प्रेरणा, उनका असीम स्नेह मेरे जीवन की अमूल्य निधि है, धरोहर है। - आज मैं जो कुछ भी हूँ, आपके आशीर्वाद के बिना शायद न होता । मातु तुल्य आदरणीया आन्टीजी तो वात्सल्य सागर है । उनकी स्नेहासिक्त वर्जनाओं के हम प्रशंसक हैं । आप दोनों के सानिध्य में परिवार से दूर होने का कभी एहसास नहीं हुआ। गुरु-ऋण बहुत बड़ा ऋण होता है । मैं नहीं जानता, आपके ऋण से कभी उऋण हो सकूँगा भी, या नहीं। आपके अभिनन्दन की इस पुनीत बेला में प्रेरणा पुरुष गुरुवर्य को अपनी अगाध श्रद्धा की अञ्जलि अपनी भावनाओं से पूरित कर समर्पित करता हूँ और साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप शतायु हों, दीर्घायु हों । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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