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________________ ५८६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ होनी चाहिए क्योंकि आहार, वचन आदि की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक होंगी। पूर्व दूसरी, तीसरी शताब्दी तक रचित जैन ग्रन्थ जिन-प्रतिमा और किन्तु जो वीतराग हैं, अनासक्त हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं हो सकती। उसके पूजन के सम्बन्ध में मौन ही हैं । दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द वह तो शरीर से भी निरपेक्ष है, अत: उसमें शरीर-रक्षण का भी कोई आदि के आगमरूप मान्य ग्रन्थों में जिन-प्रतिमा सम्बन्धी क्वचित् प्रयत्न होगा ऐसा मानना भी उचित नहीं है । आश्चर्यजनक यह है कि निर्देश हैं, किन्तु ये सभी ईसा के बाद की रचनाएँ हैं । श्वेताम्बर आगम-साहित्य में भी केवल भगवती के प्रसंग जो प्रक्षिप्त ही जैनधर्म में मूर्तिपूजा की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए यह लगता है, को छोड़ कर कहीं ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें कहा जाता है कि महावीर के जीवनकाल में ही उनकी चन्दन की एक कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् महावीर कहीं आहार लेने गये हों या उनके प्रतिमा का निर्माण हुआ था, जिसमें उन्हें राजकुमार के रूप में तपस्या लिये आहार लाया गया हो या उन्होंने आहार ग्रहण किया हो-यह बात करते हुए अंकित किया गया था । चूँकि यह प्रतिमा उनके जीवनकाल श्वेताम्बर परम्परा के लिए भी विचारणीय अवश्य है । आखिर ऐसे में ही निर्मित हुई थी, इसलिए इसे जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा गया उल्लेख क्यों नहीं मिलते। है। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का उल्लेख संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी, यद्यपि भावनात्मक एकता के दृष्टि से इस विवाद को हल जिनदासकृत आवश्यकचूर्णि और हरिभद्रसूरि की आवश्यकवृत्ति में है, करना हो तो इतना मान लेना पर्याप्त होगा कि केवली स्वत: आहार पर ये सभी परवर्ती काल अर्थात् ईसा की छठी, सातवीं और आठवीं आदि की प्राप्ति की इच्छा या प्रयत्न नहीं करता है । वर्तमान संदर्भो में शताब्दी की रचनाएँ हैं । उनके कथन की प्रामाणिकता को केवल श्रद्धा इस बात को अधिक महत्त्व देना इसलिए भी उचित नहीं है कि दोनों के के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है । जीवन्तस्वामी की प्राप्त अनुसार अगले ८२००० वर्ष तक भरतक्षेत्र में कोई केवली नहीं होगा। सभी प्रतिमाएँ पुरातात्त्विक दृष्टि से पाँचवीं, छठी शताब्दी की हैं। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के सम्बन्ध में डा० मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी मूर्तिपूजाा का प्रश्न का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है ‘पाँचवीं, छठी शताब्दी ईस्वी के पहले जैन धर्म के सम्प्रदायों में एक मुख्य विवादास्पद प्रश्न जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में है । दिगम्बर सम्प्रदाय के तारणपन्थी और प्राप्त नहीं होती है।' इस प्रकार कोई भी ऐसा साहित्यिक और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी एवं तेरापन्थी मूर्तिपूजा का विरोध पुरातात्त्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है जिसके आधार पर महावीर के पूर्व करते हैं । मूर्तिपूजा को लेकर अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जैनधर्म अथवा उनके जीवनकाल में जिन-प्रतिमा की उपस्थिति को सिद्ध किया में मूर्तिपूजा का प्रचलन कब से हुआ। यह बात स्पष्ट है कि ऐतिहासिक जा सके। दृष्टि से प्राचीनतम आगम आचरांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, यद्यपि पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से यह उत्तराध्ययन आदि में मूर्ति या मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में कोई स्पष्ट उल्लेख कहा जा सकता है कि जिन-प्रतिमा का निर्माण महावीर के निर्वाण के नहीं पाये जाते हैं । अन्तकृत आदि कुछ परवर्ती आगमों में यक्ष आदि लगभग डेढ़ सौ-दो सौ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा पूर्व की तीसरी, चौथी की प्रतिमाओं और उनके पूजन का उल्लेख तो है किन्तु जिन-प्रतिमा के शताब्दी में हो गया था। सबसे प्राचीन उपलब्ध जिन-प्रतिमा लोहनीपुर पूजन का कोई उल्लेख नहीं है । देवलोकों में शाश्वत जिन-प्रतिमा की है जो पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। यह प्रतिमा लगभग ईसा पूर्व सम्बन्धी उल्लेख तथा सूर्याभदेव और द्रौपदि के द्वारा जिन-प्रतिमा के तीसरी शताब्दी की है । यद्यपि मूर्ति का शिरोभाग अनुपलब्ध है किन्तु पूजन सम्बन्धी उल्लेख भगवती एवं ज्ञाताधर्मकथा में प्राप्त होते हैं, मूर्ति की दिगम्बरता और कायोत्सर्ग मुद्र उसे जिन-प्रतिमा सिद्ध करती किन्तु विशाल आगम-साहित्य की दृष्टि से ये सब उल्लेख भी अत्यल्प है। मौर्ययुगीन चमकदार आलेप के अतिरिक्त उसी स्थल के उत्खनन ही कहे जा सकते हैं। दूसरे विद्वानों द्वारा इन आगम ग्रन्थों का रचनाकाल से प्राप्त मौर्ययुगीन ईटें एवं एक रजत आहत मुद्रा भी मूर्ति के आचारांग आदि की अपेक्षा काफी परवर्ती माना जाता है । जिन-प्रतिमा मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं । इसी काल की कुछ अन्य जिनके पूजन के सम्बन्ध में विस्तृत निर्देश हमें उत्तरकालीन रचनाओं, प्रतिमा एवं तत्सम्बन्धी हाथी-गुंफा के शिलालेख भी उपलब्ध हैं । ईसा आगमिक नियुक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों, वृत्तियों और टीकाओं में ही पूर्व दूसरी और प्रथम शताब्दी की तो अनेक जिन-प्रतिमाएँ और उपलब्ध होते हैं । महावीर के पूर्व जिन-प्रतिमाओं के अस्तित्व का कोई आयागपट मथुरा से प्राप्त हुए हैं जिनसे यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य भी उपलब्ध नहीं है । यद्यपि हड़प्पा है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व से प्राप्त एक नग्नपुरुष की मृत्तिकामूर्ति को जिन-प्रतिमा कहा जाता है प्रारम्भ हो गया था। चाहे यह बात विवादास्पद हो सकती है कि महावीर किन्तु वह जिन-प्रतिमा है, यह बात विवादस्पद ही है। महावीर की ने जिन-प्रतिमा के पूजन का उपदेश दिया था या नहीं ? किन्तु यह जीवनचर्या के सम्बन्ध में आचारांग, कल्पसूत्र आदि में जो प्राचीनतम निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्म में जिन-प्रतिमा के निर्माण और पूजन की उल्लेख उपलब्ध हैं उसमें उनके किसी जिन-मन्दिर में जाने या जिनमूर्ति परम्परा लगभग बाईस सौ, तेईस सौ वर्षों से निरन्तर चली आ रही है। के पूजन करने का उल्लेख नहीं है, यद्यपि यक्षायतनों और यक्ष-चैत्यों पुनः जिन-प्रतिमाएँ और जिन-मन्दिर जैनधर्म और जैन संस्कृति और में उनके जाने और विश्राम करने के उल्लेख प्रचुरता से मिलते हैं । ईसा इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं जिसे अस्वीकार करने का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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