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________________ पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म ५७७ वायुप्रदूषण का प्रश्न अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःखादि विविध संवेदनाओं की अनुभूति करते वायुप्रदूषण के प्रश्न पर भी जैन आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट हैं, उसी प्रकार से वनस्पति जगत् आदि को भी अनुभूति होती है। किन्तु था । यद्यपि प्राचीन काल में वे अनेक साधन जो आज वायुप्रदूषण के जिस प्रकार एक अंधा, पंगु, मूक एवं बधिर व्यक्ति पीड़ा का अनुभव कारण बने हैं, नहीं थे मात्र अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न करने वाले करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति व्यवसाय ही थे। धूम्र की अधिक मात्रा न केवल फलदार पेड़-पाधों के आदि अन्य जीव-निकाय भी पीड़ा का अनुभव तो करते हैं किन्तु उसे लिये अपितु अन्य प्राणियों और मनुष्यों के लिए किस प्रकार हानिकारक व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते । अत: व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य यही है है, यह बात वैज्ञानिक गवेषणाओं और अनुभवों से सिद्ध हो गयी है। कि वह उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरूपयोग से बचे । जिस जैन आचार्यों ने उपासकदशासूत्र में जैन गृहस्थों के लिये स्पष्टत: उन प्रकार हमें अपना जीवन-जीने का अधिकार है उसी प्रकार उन्हें भी अपना व्यवसायों का निषेष किया है जिनमें अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न होकर जीवन जीने का अधिकार है । अत: जीवन जहाँ कहीं भी और जिस किसी वातावरण को प्रदूषित करता हो । वायुप्रदूषण का एक कारण फलों भी रूप में हो उनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है । प्रकृति की दृष्टि आदि को सड़ाकर उनसे शराब आदि मादक पदार्थ बनाने का व्यवसाय में एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना एक मनुष्य का । भी है जिसका जैन गृहस्थ के लिए निषेध है। वायुप्रदूषण को रोकने और पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, प्रदूषित वायु, सूक्ष्म कीटाणुओं एवं रजकण से बचने के लिये जैनों में उतना मनुष्य नहीं है, वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है । वृक्षों मुख वस्त्रिका बाँधने या रखने की जो परम्परा है, वह इस तथ्य का प्रमाण एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरूपयोग से बचने के सम्बन्ध है कि जैन आचार्य इस सम्बन्ध में कितने सजग थे कि प्रदूषित वायु और में भी प्राचनी जैन साहित्य में अनेक निर्देश हैं । जैन परम्परा में मुनि के कीटाणु शरीर में मुख एवं नासिका के माध्यम से प्रवेश न करें और लिए तो हरित-वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर उसे स्पर्श हमारा दूषित श्वास वायुप्रदूषण न करें । करने का भी निषेध था। गृहस्थ उपासक के लिये भी हरित वनस्पति पर्यावरण के प्रदूषण में आज धूम्र छोड़ने वाले वाहनों का के उपयोग को यथाशक्ति सीमित करने का निर्देश है । आज भी पर्वप्रयोग भी एक प्रमुख कारण है । यद्यपि वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में तिथियों में हरित-वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक जैन यह बात हास्यास्पद लगेगी कि हम पुन: बैलगाड़ी की दिशा में लौट गृहस्थ करते हैं । कंद और मूल का भक्षण जैन-गृहस्थ के लिए निषिद्ध जायें, किन्तु यदि वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना है तो हमें हमारे ही है । इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ों का ही भक्षण नगरों और सड़कों को इस धूम्र प्रदूषण से मुक्त रखने का प्रयास करना करेगा तो पौधों का अस्तित्व ही खतरे में हो जायेगा और उनका जीवन होगा। जैन मुनि के लिये आज भी जो पदयात्रा करने और कोई भी वाहन समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार से उस पेड़ को जिसका तना मनुष्य की प्रयोग नहीं करने का नियम है वह चाहे हास्यास्पद लगे, किन्तु पर्यावरण बाँहों में न आ सकता हो, काटना मनुष्य की हत्या के बराबर दोष माना को प्रदूषण से बचाने और मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से वह कितना गया है । गृहस्थ उपासक के लिए जिन पन्द्रह निषिद्ध व्यवसायों का उपयोगी है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता । आज की हमारी उपभोक्ता उल्लेख है उसमें वनों को काटना भी निषिद्ध है । आचारांग में वनस्पति संस्कृति में हम एक ओर एक फलांग भी जाना हो तो वाहन की अपेक्षा के शरीर की मानव शरीर से तुलना करके यही बतलाया गया है कि रखते हैं तो दूसरी ओर डाक्टरों के निर्देश पर प्रतिदिन पाँच-सात कि.मी. वनस्पति की हिंसा भी प्राणी हिंसा के समान है। इसी प्रकार वनों में आग टहलते हैं । यह कैसी आत्मप्रवंचना है, एक ओर समय की बचत के लगाना, वनों को काटना आदि को गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप नाम पर वाहनों का प्रयोग करना तो दूसरी ओर प्रात:कालीन एवं (महारम्भ) माना गया है क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती सायंकालीन भ्रमणों में अपने समय का अपव्यय करना । यदि मनुष्य है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूषित मध्यम आकार के शहरों तक अपने दैनान्दिन कार्यों में वाहन का प्रयोग होता है । क्योंकि वन वर्षा और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के न करे तो उससे दोहरा लाभ हो । एक ओर ईंधन एवं तत्सम्बन्धी खर्च अनुपम साधन हैं। बचें, तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण से बचें । साथ ही उसका स्वास्थ्य भी अनुकूल रहेगा । प्रकृति की ओर लौटने की बात आज चाहे कीटनाशकों का प्रयोग परम्परावादी लगती हो किन्तु एक दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव आज खेती में जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं अस्तित्व की एक अनिवार्यता होगी । आज भी यू.एस.ए. जैसे विकसित का उपयोग बढ़ता जा रहा है वह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण देशों में यह प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है। का कारण है । जैन परम्परा में गृहस्थ-उपासक के लिए खेती की अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं का वनस्पति जगत् और पर्यावरण उपयोग करने की अनुमति नहीं है क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से उद्देश्य पूर्ण हिंसा होती है जो उसके लिए निषिद्ध है । इसी प्रकार गृहस्थ तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार हम जीवन युक्त हैं और के लिए निषिद्ध पन्द्रह व्यवसायों में विशैले पदार्थ का व्यवसाय भी Jain Education 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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