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________________ जैन धर्म में नारी की भूमिका ५६५ केवल मोक्ष का अधिकारी बताया गया, अपितु उसे तीर्थंकर जैसे यह भी सत्य है कि पाश्चात्य देशों में नारी भारतीय नारी की अपेक्षा सर्वोच्च पद की भी अधिकारी घोषित किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में अधिक स्वतन्त्र है और अनेक क्षेत्रों में वह पुरुषों के समकक्ष खड़ी हुई मल्लि का स्त्री तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है । अतः हम स्पष्ट रूप से है। किन्तु इन सबका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि वहाँ का यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन टूटता हुआ दिखाई देता है । बढ़ते हुए के प्रति अधिक उदार था। बौद्धधर्म में नारी कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती तलाक और स्वच्छन्द यौनाचार ऐसे तत्त्व हैं जो ईसाई नारी की गरिमा है. किन्त जैनधर्म में चाहे अपवाद रूप में ही क्यों न हो, स्त्री तीर्थंकर को खण्डित करते हैं। जहाँ हिन्दधर्म और जैनधर्म में विवाह सम्बन्ध हो सकती है । यद्यपि परवर्ती काल में जैनधर्म की दिगम्बर शाखा में, को आज भी न केवल एक पवित्र सम्बन्ध माना गया है, अपितु एक जो नारी को तीर्थकरत्व एवं निर्वाण के अधिकार से वंचित किया गया आजीवन सम्बन्ध के रूप में देखा जाता है. वहाँ ईसाई समाज में आज था, वह उसके अचेलता पर अधिक बल देने के कारण हुआ था। चूंकि विवाह यौन-वासनाओं की पर्ति का माध्यम मात्र ही रह गया है । उसके सामाजिक स्थिति के कारण नारी नग्न नहीं रह सकती थी अत: दिगम्बर पीछे रही हुई पवित्रता एवं आजीवन बन्धन की दृष्टि समाप्त हो रही है। परम्परा ने उसे निर्वाण और तीर्थंकरत्व के अयोग्य ही ठहरा दिया । यदि ईसाई धर्म अपने समाज को इस दोष से मुक्त कर सके तो सम्भवतः किन्तु यह एक परवर्ती ही घटना है । ईसा की सातवीं शती के पूर्व जैन वह नारी की गरिमा प्रदान करने की दृष्टि से विश्व धर्मों में अधिक सार्थक साहित्य में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते हैं। सिद्ध हो सकता है। यद्यपि बौद्धधर्म में भिक्षुणीसंघ अस्तित्व में आया और संघमित्रा जैसी भिक्षुणिओं ने बौद्धधर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण अवदान भी दिया किन्तु बौद्धधर्म का यह भिक्षुणी-संघ चिरकाल तक अस्तित्व में नहीं रह ४. इस्लामधर्म और जैनधर्म सका चाहे उसके कारण कुछ भी रहें हों । आज बौद्धधर्म विश्व के एक जहाँ तक इस्लामधर्म और जैनधर्म का सम्बन्ध है सर्वप्रथम प्रमुख धर्म के रूप में अपना अस्तित्व रखता है, किन्तु कुछ श्रामणेरियों हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों की प्रकृति भिन्न है । इस्लामधर्म को छोड़कर बौद्धधर्म में कहीं भी भिक्षुणी-संघ की उपस्थिति नहीं देखी में संन्यास की अवधारणा प्राय: अनुपस्थित है और इसलिए उसमें नारी जाती है । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना रही है । चाहे इसके मूल में भी __ को पुरुष के समकक्ष स्थान मिल पाना सम्भव ही नहीं है । उसमें अक्सर बौद्धाचार्यों के मन में बुद्ध का यह भय ही काम कर रहा हो कि भिक्षुणियों नारी को एक भोग्या के रूप में ही देखा गया है । बहुपत्नी प्रथा का खुला की उपस्थिति से संघ चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा। जबकि जैनधर्म समर्थन भी इस्लाम में नारी की स्थिति को हीन बनाता है। वहाँ न केवल में आज भी ससंगठित भिक्षणी-संघ उपस्थित है और भिक्षओं की अपेक्षा पुरुष को बहुविवाह का अधिकार है अपितु उसे यह भी अधिकार है कि भिक्षणियों की संख्या तीन गनी से अधिक है। यह बौद्धधर्म की अपेक्षा वह चाहे जब मात्र तीन बार तलाक कहकर विवाह-बन्धन को तोड़ जैनधर्म के नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण का परिचायक है। सकता है । फलत: उसमें नारी को अत्याचार व उत्पीड़न की शिकार बनाने की सम्भावनाएँ अधिक रही हैं। यह केवल हिन्दूधर्म व जैनधर्म ईसाईधर्म और जैनधर्म की ही विशेषता है कि उसमें विवाह के बन्धन को आजीवन एक पवित्र नारी के सम्बन्ध में ईसाईधर्म और जैनधर्म का दृष्टिकोण बहत बन्धन के रूप में स्वीकार किया जाता है और यह माना जाता है कि यह कुछ समान है। तीर्थंकरों की माताओं के समान ईसाईधर्म में यीश की बन्धन तोड़ा नहीं जा सकता है । यद्यपि इस्लाम में नारी के सम्पत्ति के माता मरियम को भी पूजनीय माना गया है। साथ ही ईसाईधर्म में जैनधर्म अधिकार को मान्य किया गया है, किन्तु व्यवहार में कभी भी नारी परुष की भांति ही भिक्षुणी-संस्था की उपस्थिति रही है। आज भी ईसाईधर्म की कैद एवं उत्पीड़न से मुक्त नहीं रह सकी । उसमें स्त्री पुरुष की में न केवल भिक्षणी संस्था सव्यवस्थित रूप में अस्तित्व रखती है वासनापूर्ति का साधन मात्र ही बनी रही । भारत में पर्दाप्रथा, सतीप्रथा अपित ईसाई भिक्षणियां (Nuns) अपने ज्ञानदान और सेवाकार्य से जैसे कुप्रथाओं के पनपने के लिए इस्लामधर्म ही अधिक जिम्मेदार रहा समाज में अधिक आदरणीय और महत्त्वपूर्ण बनी हुई हैं । ईसाई धर्म संघ है। द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों और सेवाश्रमों में इन इस तुलानात्मक विवरण के आधार पर अन्त में हम यह कह भिक्षणियों की त्याग और सेवा-भावना अनेक व्यक्तियों के मन को मोह सकते हैं कि विभिन्न धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति लेती है। यदि जैन समाज उनसे कछ शिक्षा ले तो उसका भिक्षणी-संघ अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक एवं उदार है । यद्यपि इस सत्य को समाज के लिए अधिक लोकोपयोगी बन सकता है और नारी में निहित स्वीकर करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है कि समसामयिक परिस्थितियों समर्पण और सेवा की भावना का सम्यक उपयोग किया जा सकता और सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से जैनधर्म में भी नारी के मूल्य व महत्त्व का क्रमिक अवमूल्यन हुआ है । किन्तु उसमें उपस्थित जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, निश्चय ही पाश्चात्य भिक्षुणी -संघ ने न केवल नारी को गरिमा प्रदान की, अपित् उसे ईसाई समाज में नारी की पुरुष से समकक्षता की बात कही जाती है। सामाजिक उत्पीड़न और पुरुष के अत्याचारों से बचाया भी है । यही जैनधर्म की विशेषता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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