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________________ जैन धर्म में नारी की भूमिका ५६३ दुत्कारा नहीं, अपितु उसके समुद्धार का प्रयत्न किया। जैन दण्डव्यवस्था मणिप्रभा श्री जी और साध्वी श्री मृगावतीजी भी ऐसे नाम हैं कि जिनके में उन भिक्षुणियों के लिये किसी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था नहीं की व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही उनकी यशोगाथा को उजागर करते गई थी जो बलात्कार की शिकार होकर गर्भवती हो जाती थीं अपितु हैं। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में आर्यिका ज्ञानमती जी का भी पर्याप्त उनके और उनके गर्भस्थ बालक के संरक्षण का दायित्व संघ का माना प्रभाव है। उनके द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों की सूची से उनकी विद्वत्ता का गया था । प्रसवोपरान्त बालक बालिका के बड़ा हो जाने पर वे पुनः आभास हो जाता है। भिक्षुणी हो सकती थी। इसी प्रकार वे भिक्षुणियाँ भी जो कभी वासना अत: हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म में उसके अतीत से के आवेग में बहकर चारित्रिक स्खलन की शिकार हो जाती थीं, लेकर वर्तमान तक नारी की और विशेष रूप से भिक्षुणियों की एक तिरस्कृत नहीं कर दी जातीं, अपितु उन्हें अपने को सुधारने का अवसर महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । जहाँ एक ओर जैनधर्म ने नारी को सम्मानित प्रदान किया जाता था। इस तथ्य के समर्थन में यह कहा गया था कि और गौरवान्वित करते हुए, उसके शील संरक्षण का प्रयास किया और क्या बाढ़ से ग्रस्त नदी पुन: अपने मूल मार्ग पर नहीं आ जाती है ? उसके आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया; वहीं दूसरी ओर जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था में भी स्त्रियों या भिक्षुणियों के लिए परिहार और ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना से लेकर आज तक की अनेकानेक सतीपाराञ्चिक (निष्कासन) जैसे कठोर दण्ड वर्जित मान लिये गये थे, साध्वियों ने अपने चरित्रबल तथा संयम साधना से जैनधर्म की ध्वजा को क्योंकि इन दण्डों के परिणाम स्वरूप वे निराश्रित होकर वेश्यावृत्ति जैसे फहराया है। अनैतिक कर्मों के लिये बाध्य हो सकती थीं । इस प्रकार जैनाचार्य नारी के प्रति सदैव सजग और उदार रहे हैं। विभिन्न धर्मों में नारी की स्थिति की तुलना हम यह पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि जैनधर्म का भिक्षुणी-संघ उन अनाथ, परित्यक्ता एवं विधवा नारियों के लिए सम्मानपूर्वक (१) हिन्दू धर्म और जैनधर्म - हिन्दू धर्म में वैदिक युग में जीने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता था और यही कारण है कि प्राचीन नारी की भूमिका धार्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण मानी काल से लेकर आजतक जैनधर्म अभागी नारियों के लिए आश्रय-स्थल जाती थी और उसे पुरुष के समकक्ष ही समझा जाता था। स्त्रियों के द्वारा या शरणस्थल बना रहा है । सुश्री हीराबहन बोरदिया ने अपने शोध कार्य रचित अनेक वेद-ऋचाएं और यज्ञ आदि धार्मिक कर्मकाण्डों में पत्नी के दौरान अनेक साध्वियों का साक्षात्कार लिया और उसमें वे इसी की अनिवार्यता, निश्चय ही इस तथ्य की पोषक हैं । मनु का यह उद्घोष निष्कर्ष पर पहुंची थीं कि वर्तमान में भी अनेक अनाथ, विधवा, कि नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता- अर्थात् जहाँ नारीयों की पूजा परित्यक्ता स्त्रियाँ अथवा वे कन्यायें जो दहेज अथवा कुरूपता के कारण होती है वहाँ देवता रमण करते हैं, इसी तथ्य को सूचित करता है कि विवाह न कर सकीं, वे सभी जैन भिक्षुणी-संघ में सम्मिलित होकर एक हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इन सबके सम्मानपूर्ण स्वावलम्बन का जीवन जी रही हैं । जैन भिक्षुणियों में से अतिरिक्त भी देवी-उपासना के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, महाकाली आदि अनेक तो आज भी समाज में इतनी सुस्थापित हैं कि उनकी तुलना में देवियों की उपासना भी इस तथ्य की सूचक है कि नारी न केवल मुनि वर्ग का प्रभाव भी कुछ नहीं लगता है। उपासक है अपितु उपास्य भी है। यद्यपि वैदिक युग से लेकर तंत्र युग इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैनधर्म के प्रारम्भ तक नारी की महत्ता के अनेक प्रमाण हमें हिन्दूधर्म में मिलते के विकास और प्रसार में नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । आज भी हैं किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी है कि स्मृति युग से ही उसमें जैन समाज में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या तीन गुनी से भी क्रमश: नारी के महत्त्व का अवमूल्यन होता गया। स्मृतियों में नारी को अधिक है जो समाज पर उनके व्यापक प्रभाव को धोतित करती है। पुरुष के अधीन बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया था और उनमें यहाँ तक वर्तमान युग में भी अनेक ऐसी जैन साध्वियां हुई हैं और हैं जिनका कहा गया कि नारी को बाल्यकाल में पिता के अधीन, युवावस्था में पति समाज पर अत्यधिक प्रभाव रहा है । जैसे स्थानकवासी परम्परा में के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रह कर ही अपना जीवन पंजाबसिंहनी साध्वी पार्वतीजी जो अपनी विद्वत्ता और प्रभावशीलता के जीना होता है । इस प्रकार वह सदैव ही पुरुष के अधीन ही है, कभी लिये सुविश्रुत थीं। जैनधर्म के कट्टर विरोधी भी उनके तर्कों और बुलंदगी भी स्वतन्त्र नहीं है । स्मृति काल में उसे सम्पत्ति के अधिकार से भी के सामने सहम जाते थे। इसी प्रकार साध्वी यशकुँवरजी जिन्होंने मूक वंचित किया गया और सामाजिक जीवन में मात्र उसके दासी या भोग्या पशुओं की बलि को बन्द कराने में अनेक संघर्ष किये और अपने शौर्य स्वरूप पर ही बल दिया गया। पति की सेवा को ही उसका एकमात्र एवं प्रवचनपटुता से अनेक स्थलों पर पशुबलि को समाप्त करवा कर्त्तव्य माना गया । दिया । उसी क्रम में स्थानकवासी परम्परा में मालव सिंहनी साध्वी श्री यह विडम्बना ही थी कि अध्ययन के क्षेत्र में भी वेद-ऋचाओं रत्नकुँवरजी और महाराष्ट्र गौरव साध्वी श्री उज्ज्वलकुँवरजी के भी नाम की निर्मात्री नारी को, उन्हीं ऋचाओं के अध्ययन से वंचित कर दिया लिये जा सकते हैं जिनका समाज पर प्रभाव किसी आचार्य से कम नहीं गया। उसके कार्यक्षेत्र को सन्तान-उत्पादन, सन्तान-पालन, गृहकार्य था। मूर्तिपूजक परम्परा में वर्तमान युग में साध्वी श्री विचक्षण श्री जी, सम्पादन तथा पति की सेवा तक सीमित करके उसे घर की चारदिवारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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