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________________ ५५४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ निम्नतम गति में नहीं जा सकती, अत: वह उच्चतम गति में भी नहीं आगमिक व्याख्याओं के काल में जैन परम्परा में भी पुरुष की महत्ता बढ़ी जा सकती । अत: स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं । और ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया । अंग आगमों में ३. यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रवर्तिनी, में ध्यान की स्थिरता नहीं होती है, अत: वे आध्यात्मिक विकास की आचार्य और तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्षु को वन्दन या पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती। नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्या४. एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वाद साहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के सामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में लिए भी सद्य: दीक्षित मुनि वन्दनीय है । (बृहत्कल्पभाष्य, भाग ६, गाथा अयोग्य होती हैं अत: वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं। ६३९९; कल्पसूत्र कल्पलता टीका) । सम्भवत: जैन परम्परा में पुरुष यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ने भी उन्हें बौद्धिक क्षमता के कारण की ज्येष्ठता का प्रतिपादन बौद्धों के अष्टगुरु धर्मों के कारण ही हुआ हो। दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकर किया गया। का प्रयत्न किया गया है। मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता चाहे शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह थीं। वे न केवल पुरुषों के समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु परिग्रह नहीं है, अत: इसमें प्रव्रजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है ।३९ वे स्वेछानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मुनि के अचेलकत्व से भागीदार होती थीं। जैन परम्परा में मर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख (दिगम्बर तत्त्व) की पोषक यापनीय परम्परा ने स्त्री-मुक्ति और पंच उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम महाव्रत आरोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र (स्त्री-दीक्षा) को स्वीकार भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दिगम्बर किया है। उससे विकसित द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघों में भी स्त्री- और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग यह मानते हैं कि स्त्री को दीक्षा (महाव्रतारोपण) को स्वीकार किया गया है । यद्यपि इस कारण वे जिन-प्रतिमा के स्पर्श, पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है, किन्तु मूल संघीय दिगम्बर परम्परा की आलोचना के पात्र भी बने और उन्हें यह एक परवर्ती अवधारणा है, मथुरा के जैन शिल्प में साधु के समान जैनाभास तक कहा गया । इससे स्पष्ट है कि न केवल श्वेताम्बरों ने ही साध्वी का अंकन और स्त्री-पुरुष दोनों के पूजा सम्बन्धी सामग्री सहित अपितु दिगम्बर परम्परा के अनेक संघों ने भी स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा अंकन यही सूचित करते हैं कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में दोनों का को स्वीकार करके नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया था ।४० समान स्थान रहा है। यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के न केवल स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार किया, अपितु मल्लि को प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह भी उद्घोषित किया कि के आचार्य होने का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी, प्रवर्तिनी, आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे और है । स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। अवधारणा है जो नारी गरिमा को महिमामण्डित करती है। यद्यपि तरुणी भिक्षुणियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्षु संघ को सौंपा गया ज्ञातव्य है कि बौद्धपरम्परा जो कि जैनों के समान ही श्रमण था, किन्तु सामान्यतया भिक्षुणियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं धारा का एक अंग थी, स्त्री के प्रति इतनी उदार नहीं बन सकी, जितनी रखती थी, क्योंकि रात्रि एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्षुणियों का एक जैन परम्परा । क्योंकि बुद्ध स्त्री को निर्वाण पद की अधिकारिणी मानकर ही साथ रहना सामान्यतया वर्जित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्षुणी संघ भी यह मानते थे कि स्त्री बुद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकती है । नारी में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे । इस प्रकार हम देखते को संघ में प्रवेश देने में उनकी हिचक और उसके प्रवेश के लिए अष्टगुरु हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया धर्मों का प्रतिपादन जैनों की अपेक्षा नारी के प्रति उनके अनुदार दृष्टिकोण फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि आगमिक का ही परिचायक है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना के रूप में स्त्री व्याख्याओं के युग में और उसके पश्चात् जैन परम्परा में भी स्त्री की को महत्त्व दिया गया है, किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी। है, उसकी अपनी एक विशेषता है । वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त नारी की स्वतन्त्रता कर सकते हैं । यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण में इसे एक आश्चर्यजनक घटना कहकर पुरुष के प्राधान्य को स्थापित उदार था । यौगलिक काल में स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे। करने का प्रयत्न अवश्य किया गया । (स्थानांग, १०/१६०) किन्तु आगम-ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राज द्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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