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________________ जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन ५३९ ५. कुलधर्म - परिवार अथवा वंश-परम्परा के आचार- ८. श्रुतधर्म - सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य है नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है । परिवार का शिक्षण-व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का पालन करना । शिष्य का गुरु के अनुभवी, वृद्ध एवं योग्य व्यक्ति कुलस्थविर होता है। परिवार के सदस्य प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार हो, यह श्रुतधर्म का ही कुलस्थविर की आज्ञाओं का पालन करते हैं और कुलस्थविर का कर्तव्य विषय है । सामाजिक सन्दर्भ में श्रुतधर्म से तात्पर्य शिक्षण की सामाजिक है परिवार का संवर्धन एवं विकास करना तथा उसे गलत प्रवृत्तियों से या संघीय व्यवस्था है । गुरु और शिष्य के कर्तव्यों तथा पारस्परिक बचाना । जैन परम्परा में गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिये कुलधर्म का सम्बन्धों का बोध और उनका पालन श्रुतधर्म या ज्ञानार्जन का अनिवार्य पालन आवश्यक है, यद्यपि मुनि का कुल उसके पिता के आधार पर अंग है। योग्य शिष्य को ज्ञान देना गुरु का कर्तव्य है जबकि शिष्य का नहीं वरन् गुरु के आधार पर बनता है। कर्तव्य गुरु की आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना है। ६. गणधर्म - गण का अर्थ समान आचार एवं विचार के ९. चारित्रधर्म - चारित्रधर्म का तात्पर्य है श्रमण एवं गृहस्थ व्यक्तियों का समूह है । महावीर के समय में हमें गणराज्यों का उल्लेख धर्म के आचारनियमों का परिपालन करना । यद्यपि चारित्रधर्म का बहुत मिलता है । गणराज्य एक प्रकार के प्रजासत्तात्मक राज्य होते हैं। कुछ सम्बन्ध वैयक्तिक साधना से है, तथापि उनका सामाजिक पहलू भी गणधर्म का तात्पर्य है गण के नियमों और मर्यादाओं का पालन करना। है। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी गण दो माने गये हैं - १. लौकिक (सामाजिक) और २. लोकोत्तर है। अहिंसा सम्बन्धी सभी नियम और उपनियम सामाजिक शान्ति के (धार्मिक) । जैन परम्परा में वर्तमान युग में भी साधुओं के गण होते संस्थापन के लिये हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक विद्वेष एवं हैं जिन्हें 'गच्छ' कहा जाता है । प्रत्येक गण (गच्छ) के आचार-नियमों वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह में थोड़ा-बहुत अन्तर भी रहता है । गण के नियमों के अनुसार आचरण पर आधारित जैन आचार के नियम-उपनियम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में करना गणधर्म है । परस्पर सहयोग तथा मैत्री रखना गण के प्रत्येक सामाजिक दृष्टि से युक्त हैं, यह माना जा सकता है। सदस्य का कर्तव्य है। गण का एक गणस्थविर होता है । गण की देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर व्यवस्थाएँ देना, नियमों को १०-अस्तिकायधर्म - अस्तिकायधर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध बनाना और पालन करवाना गणस्थविर का कार्य है । जैन विचारणा के तत्त्वमीमांसा से है, अत: उसका विवेचन यहाँ अप्रासंगिक है । अनुसार बार-बार गण को बदलने वाला साधक हीन दृष्टि से देखा गया इस प्रकार जैन आचार्यों ने न केवल वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक है। बुद्ध ने भी गण की उन्नति के लिए नियमों का प्रतिपादन किया है। पक्षों के सम्बन्ध में विचार किया वरन् सामाजिक जीवन पर भी विचार किया है । जैन सूत्रों में उपलब्ध नगरधर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि का ७. संघधर्म - विभिन्न गणों से मिलकर संघ बनता है । जैन यह वर्णन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन आचारदर्शन सामाजिक आचार्यों ने संघधर्म की व्याख्या संघ या सभा के नियमों के परिपालन पक्ष का यथोचित मूल्यांकन करते हुए उसके विकास का भी प्रयास के रूप में की है। संघ एक प्रकार की राष्ट्रीय संस्था है जिसमें विभिन्न करता है। कुल या गण मिलकर सामूहिक विकास एवं व्यवस्था का निश्चय करते वस्तुत: जैनधर्म वैयक्तिक नैतिकता पर बल देकर सामाजिक हैं। संघ के नियमों का पालन करना संघ के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य सम्बन्धों को शुद्ध और मधुर बनाता है। सन्दर्भ जैन-परम्परा में संघ के दो रूप हैं - १. लौकिक संघ और २.लोकोत्तर संघ । लौकिक संघ का कार्य जीवन के भौतिक पक्ष की व्यवस्थाओं को देखना है जबकि लोकोत्तर संघ का कार्य आध्यात्मिक विकास करना है । लौकिक संघ हो या लोकोत्तर संघ हो, संघ के प्रत्येक सदस्य का यह अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है कि वह संघ के नियमों का पूरी तरह पालन करे । संघ में किसी भी प्रकार के मनमुटाव अथवा संघर्ष के लिये कोई भी कार्य नहीं करे । एकता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सदैव ही प्रयत्नशील रहे । जैन परम्परा के अनुसार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों से मिलकर संघ का निर्माण होता है । नन्दीसूत्र में संघ के महत्त्व का विस्तारपूर्वक सुन्दर विवेचन हुआ है जिससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में नैतिक साधना में संघीय जीवन का कितना अधिक महत्त्व है ।३२ १. ऋग्वेद, १०/१९/१२. २. ईशावास्योपनिषद्, ६. ३. वही, १. ४. श्रीमद्भागवत, ७/१४/८. ५. आचारांग, १/५/५. ६. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २/१/२. ७. वही, २/१/३. ८. समन्तभद्र, युक्तयानुशासन, ६१. ९. स्थानांग, १०/७६०. १०. देखें - सागरमल जैन, व्यक्ति और समाज, श्रमण, वर्ष ३४, (१९८३) अंक २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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