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________________ ५०६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हितों से राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय हितों से मानवीय हित और मानवीय है, वही श्रेष्ठ है, क्योंकि वही मेरी आज्ञा का पालन करता है। इसका हितों से प्राणी-जगत् के हित श्रेष्ठ माने जाते हैं। जो व्यक्ति इनमें उच्च, तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक जप, तप, पूजा और उपासना की अपेक्षा उच्चतर और उच्चतम की दिशा में जितना आगे बढ़ता है उसे उतना जैन धर्म में भी संघ-सेवा को अधिक महत्त्व दिया गया है। ही महान् कहा जाता है। उसमें संघ या समाज का स्थान प्रभु से भी अपर है, क्योंकि किसी व्यक्ति की महानता की कसौटी यही है कि वह कितने तीर्थकर भी प्रवचन के पूर्व 'नमो तित्थस्स' कह कर संघ को वंदन व्यापक हितों के लिए कार्य करता है। वही साधक श्रेष्ठतम समझा करता है। संघ के हितों की उपेक्षा करना सबसे बड़ा अपराध माना जाता है जो अपने जीवन को सम्पूर्ण प्राणी-जगत् के हित के लिए गया था। जब आचार्य भद्रबाहु ने अपनी ध्यान-साधना में विध्न आयेगा, समर्पित कर देता है। इस प्रकार साधना का अर्थ हुआ लोकमंगल यह समझ कर अध्ययन करवाने से इन्कार किया तो संघ ने उनसे या विश्वमंगल के लिए अपने आप को समर्पित कर देना। साधना वैयक्तिक यह प्रश्न किया था कि संघहित और आपकी वैयक्तिक साधना में कौन हितों से उपर उठकर प्राणी-जगत् के हित के लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ श्रेष्ठ है? अन्ततोगत्वा उन्हें संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यही करना है, तो वह सेवा से पृथक् नहीं है। बात प्रकारान्तर से हिन्दू धर्म में भी कही गई है। उसमें कहा गया कोई भी धर्म या साधना-पद्धति ऐसी नहीं है जो व्यक्ति को अपने है कि वे व्यक्ति जो दूसरों की सेवा छोड़कर केवल प्रभु का नाम स्मरण वैयक्तिक हितों या वैयक्तिक कल्याण तक सीमित रहने को कहती है। करते रहते हैं, वे भगवान् के सच्चे उपासक नहीं हैं। धर्म का अर्थ भी लोकमंगल की साधना ही है। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार समस्त चर्चा से यह फलित होता है कि सेवा ही ने धर्म की परिभाषा करते हुए स्पष्ट रूप से कहा है सच्चा धर्म है और यही सच्ची साधना है। यही कारण है कि जैन परहित सरिस धरम नहि भाई। धर्म में तप के जो विभिन्न प्रकार बताए गए हैं उनमें वैयावृत्य सेवा पर पीड़ा समनहिंअधमाई।। को एक महत्त्वपूर्ण आभ्यन्तर तप माना गया है। तप में सेवा का अन्तर्भाव तुलसीदास जी द्वारा प्रतिपादित इसी तथ्य को प्राचीन आचार्यों यही सूचित करता है कि सेवा और साधना अभिन्न है। मात्र यही नहीं ने “परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीडनम्' अर्थात् परोपकार करना जैन परम्परा में तीर्थकर पद, जो साधना का सर्वोच्च साध्य है, की पुण्य या धर्म है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है कहकर परिभाषित प्राप्ति के लिए जिन १६ या २० उपायों की चर्चा की गयी है उसमें किया था। पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के बीच यदि कोई सर्वमान्य सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। विभाजक रेखा है तो वह व्यक्ति की लोकमंगल की या परहित की गीता में भी लोकमंगल को भूतयज्ञ प्राणियों की सेवा का नाम भावना ही है जो दूसरों के हितों के लिए या समाज-कल्याण के लिए देकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इस प्रकार जो यज्ञ पहले वैयक्तिक अपने हितों का समर्पण करना जानता है, वही नैतिक है, वही धार्मिक हितों की पूर्ति के लिए किए जाते थे, उन्हें गीता ने मानव सेवा से है और वही पुण्यात्मा है। लोकमंगल की साधना को जीवन का एक जोड़कर एक महत्त्वपूर्ण क्रान्ति की थी। उच्च आदर्श माना गया था, यही कारण था कि भगवान् बुद्ध ने अपने धर्म का अर्थ दायित्व या कर्तव्य का परिपालन भी है। कर्तव्यों शिष्यों को यह उपदेश दिया- “चरत्थ भिक्खवे चारिक्कं बहुजनहिताय या दायित्वों को दो भागों में विभाजित किया जाता है— एक वे जो बहुजनसुखाय' अर्थात् हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए और स्वयं के प्रति होते हैं और दूसरे वे जो दूसरे के प्रति होते हैं। यह बहुजनों के सुख के लिए प्रयत्न करो। न केवल जैन धर्म, बौद्ध धर्म ठीक है कि व्यक्ति को अपने जीवन रक्षण और अस्तित्व के लिए या हिन्दू धर्म की अपितु इस्लाम और ईसाई धर्म की भी मूलभूत शिक्षा भी कुछ करना होता है किन्तु इसके साथ-साथ ही परिवार, समाज, लोकमंगल या सामाजिक हित-साधन ही रही है। इससे यही सिद्ध राष्ट्र या मानवता के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। व्यक्ति के होता है कि सेवा और साधना दो पृथक्-पृथक् तथ्य नहीं हैं। सेवा स्वयं के प्रति जो दायित्व हैं वे ही दूसरे की दृष्टि से उसके अधिकार में साधना और साधना में सेवा समाहित है। यही कारण था कि वर्तमान कहे जाते हैं और दूसरों के प्रति उसके जो दायित्व हैं वे उसके कर्तव्य युग में महात्मा गांधी ने भी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा कहे जाते हैं। वैसे तो अधिकार और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष ही है। धर्म या कर्तव्य कहा। जो मेरा अधिकार है वह दूसरों के लिए मेरे प्रति कर्तव्य हैं और जो जो लोग साधना को जप, तप, पूजा, उपासना या नाम स्मरण दूसरों के अधिकार हैं वे ही मेरे लिए उनके प्रति कर्तव्य हैं। दूसरों तक सीमित मान लेते हैं, वे वस्तुत: एक भ्रान्ति में ही हैं। यह प्रश्न के प्रति अपने कर्तव्यों का परिपालन ही सेवा है। जब यह सेवा बिना प्रत्येक धर्म साधना-पद्धति में उठा है कि वैयक्तिक साधना अर्थात् जप, प्रतिफल की आकांक्षा के की जाती है तो सही साधना बन जाती है। तप, ध्यान तथा प्रभु की पूजा-उपासना और सेवा में कौन श्रेष्ठ है? इस प्रकार सेवा और साधना अलग-अलग तथ्य नहीं रह जाते हैं। जैन परम्परा में भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि एक व्यक्ति आपकी सेवा साधना हैं और साधना धर्म हैं। अत: सेवा, साधना और धर्म पूजा-उपासना या नाम स्मरण में लगा हुआ है और दूसरा व्यक्ति ग्लान एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। एवं रोगी की सेवा में लगा हुआ हैं, इनमें कौन श्रेष्ठ है? प्रत्युत्तर सामान्यतया साधना का लक्ष्य मुक्ति माना जाता है और मुक्ति में भगवान महावीर ने कहा था कि जो रोगी या ग्लान की सेवा करता वैयक्तिक होती है। अत: कुछ विचारक सेवा और साधना में किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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