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________________ साधना और समाज सेवा : जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में ५०३ बनने का सबसे पहला उपक्रम है। यदि हमारे जीवन में दूसरों की उसकी अहिंसा मात्र 'मत मारो' का निषेधक उद्घोष बन कर रह गई। पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही किन्तु यह एक भ्रांति ही है। बिना 'सेवा' के अहिंसा अधूरी है और समझ लेना चाहिये कि हममेधर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों संन्यास निष्क्रिय है। जब संन्यास और अहिंसा में सेवा का तत्त्व जुड़ेगा की पीड़ा आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्वबोध की अन्तश्चेतना तभी वे पूर्ण बनेंगे। के बिना सारे धार्मिक क्रियाकाण्ड पाखण्ड या ढोंग है। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में सम्यक्-दर्शन (जो कि धार्मिकता संन्यास और समाज की आधार-भूमि है) के जो पाँच अंग माने गये हैं, उनमें समभाव सामान्यतया भारतीय दर्शन में संन्यास के प्रत्यय को समाजऔर अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। सामाजिक दृष्टि से समभाव निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष का अर्थ है, दूसरों को अपने समान समझना, क्योंकि अहिंसा एवं है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है? संन्यास के संकल्प में वह आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, मरना कहता है कि “वित्तैषणा पुत्रैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता" अर्थात् नहीं चाहता हूँ, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक मैं अर्थ कामना, सन्तान कामना और यश कामना का परित्याग करता हैं और मृत्यु से भयभीत हैं। जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति का इच्छुक हूँ। जैन परम्परा के अनुसार वह सावद्ययोग या पापकर्मों का त्याग हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी करता है। किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यश-कीर्ति की कामना सुख के इच्छुक हैं, और दुःख से दूर रहना चाहते हैं। यही वह दृष्टि का या पाप-कर्म का परित्याग समाज का परित्याग है? वस्तुत: समस्त है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास एषणाओं का त्याग या पाप कर्मों का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय होता है। जीवन का त्याग है। संन्यास का यह संकल्प उसे समाज विमुख नहीं जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता बनाता है, अपति समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित का भाव जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा करता है क्योकि सच्चा लोकहित निस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक्-दर्शन का उदय भी नहीं होता, स्थित होकर ही किया जा सकता है। जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता। भगवान् शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजू है बुद्ध का यह आदेश "चरत्य भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनइमां गलत उशूल गलत, इदुआ गलत। सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देवमनुस्सान" (विनयपिटक, इंसा की दिलदिही, अगर इंसा न कर सके।। महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोकमंगल के लिए जब दूसरों की पीड़ा अपनी बन जाती है तो सेवा की भावना होता है। सच्चा संन्यासी वह है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे का उदय होता है। यह सेवा न तो प्रदर्शन के लिए होती है और अधिकतम देता है। वस्तुत: वह कुटुम्ब,परिवार आदि का त्याग इसलिए न स्वार्थबुद्धि से होती है, यह हमारे स्वभाव का ही सहज प्रकटन करता है कि समष्टि का होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह होती है। तब हम जिस भाव से अपने शरीर की पीड़ाओं का निवारण सबका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है। संन्यासी करते हैं उसी भाव से दूसरों की पीड़ाओं का निवारण करते हैं, क्योंकि नि:स्वार्थ और निष्काम रूप से लोकमंगल का साधक होता है। संन्यास जो आत्मबुद्धि अपने शरीर के प्रति होती है वही आत्मबुद्धि समाज शब्द सम्पूर्वक न्यास शब्द से बना है। न्यास शब्द का अर्थ देखरेख के सदस्यों के प्रति भी हो जाती है, क्योंकि सम्यक्-दर्शन के पश्चात् करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी आत्मवत् दृष्टि का उदय हो जाता है। जहाँ आत्मवत् दृष्टि का उदय (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्वभाव होता है वहाँ हिंसक बुद्धि समाप्त हो जाती है और सेवा स्वाभाविक और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं रूप से साधना का अंग बन जाती है। जैन धर्म में ऐसी सेवा को विकास करता है। संन्यासी सच्चे अर्थों में एक ट्रस्टी है। जो ट्रस्ट निर्जरा या तप का रूप माना गया है। इसे 'वैयावच्च' के रूप में माना की सम्पदा ट्रस्टी का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका जाता है। मुनि नन्दिसेन की सेवा का उदाहरण तो जैन परम्परा में स्वामी समझता है, वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। वह यदि सर्वविश्रुत है। आवश्यकचूर्णि में सेवा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में कहा है कि एक व्यक्ति भगवान् का नाम स्मरण करता है, भक्ति करता ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वबुद्धि है, किन्तु दूसरा वृद्ध और रोगी की सेवा करता है, उन दोनों में सेवा या स्वार्थबुद्धि से काम करता है तो वह संन्यासी नहीं है और यदि करने वाले को ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह सही अर्थों में भगवान् । लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है की आज्ञा का पालन करता है, दूसरे शब्दों में धर्ममय जीवन जीता है। तो भी वह संन्यासी नहीं है। उसके जीवन का मिशन तो "सर्वभूतहिते जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि निवृत्तिमार्ग या संन्यास पर रतः” का है। अधिक बल देते हुए भी उसमें सेवा की भावना गौण होती चली गई संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका तात्पर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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