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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ अवधि में एक बार भी आयोजित न हो सका। डॉ० सागरमल जी से उसके पश्चात् दिल्ली, उदयपुर, जोधपुर आदि स्थानों पर अनेक बार मिलना हुआ । आपका स्नेह प्रत्येक बार वृद्धिगत होता गया। जब मैंने जोधपुर विश्वविद्यालय में कार्यभार ग्रहण किया ही था तब आप विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विस्तार व्याख्यान माला के अन्तर्गत जैन कर्म सिद्धांत पर व्याख्यान देने हेतु पधारे थे। आप उस समय मुझे जोधपुर में देखकर अचम्भित से हुए और बोले 'तू यहाँ कैसे? मैंने कहा - मेरी नियुक्ति इसी विश्वविद्यालय में हो गयी है।' उन्हें यह जानकर हार्दिक प्रमोद हुआ । उसके अनन्तर तीन-बार आपका जोधपुर पधारना हुआ । जब भी आप जोधपुर पधारे तब घर पर अवश्य पधारे । आपकी सहज आत्मीयता एवं स्नेह का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा। बच्चों के प्रतिप्रेम आपके निर्मल हृदय का बोध कराता है। आपकी सदैव यह भावना रही की मैं आपके पास वाराणसी आकर रहूँ किन्तु विभिन्न अपरिहार्य कारणों की वजह से मैं आपके सतत् सान्निध्य से वंचित ही रहा । आप जिस तन्मयता से विद्या की साधना में संलग्न हैं वह बस मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत है। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला जी से भी मां का सहज स्नेह मिलता है। मैं समझता हूं कि कमला जी का सहयोग डॉ० सागरमल जी के निरन्तर उत्थान में निमित्त बना है । पौराणिक कथानक के अनुसार तो सागर के मंथन से कमला रूपी रत्न उद्भूत हुआ था, किन्तु यहाँ लगता है कि सागर को पूर्णता प्रदान करने के लिए कमला का संयोग प्राप्त हुआ है । इसीलिए डॉ० सागरमल जी सरस्वती के साधक होकर भी कमलापति हैं । आपके परिवार में पूर्ण समृद्धि है तथापि आप सरस्वती की उपासना में सन्नद्ध हैं, इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है। मेरा ही नहीं समस्त विद्वत् समाज का मंतव्य है कि डॉ० सागरमल जी के निदेशक बनने के पश्चात् पार्श्वनाथ विद्यापीठ का कायाकल्प हो गया है। विद्यापीठ के परिसर में भौतिक निर्माण का कार्य हुआ, डॉ० जैन की सूझबूझ एवं सतत् परिश्रम का ही सुफल है । परिणाम स्वरूप आज यह संस्था आपके निर्देशन में मान्य विश्वविद्यालय का स्वरूप ग्रहण करने के लिए तत्पर है । आपने लगभग ४० विद्यार्थियों को शोध कार्य कराते हुए भी जिस विपुल-साहित्य का निर्माण किया है वह इन दो दशकों में आपको जैन विद्या के सर्वोच्च विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित करता है । आप में लेखन कला के अतिरिक्त व्यवस्थित प्रतिपादन एवं प्रमाणित सबल युक्तियों का प्राण-तत्त्व भी विद्यमान है, जो भावी जैन विद्वानों के लिए एक पाथेय का कार्य करेगा। आपका लेखन जैन-विद्या के अध्येताओं के लिए ही नहीं, अपितु भारतीय विद्या, संस्कृति एवं कला के अध्येताओं के लिए भी उपादेय है। आप जो कुछ लिखते हैं उसमें आपका मंथन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मैं पितृतुल्य डॉ० सागरमल जैन के शतायु होने की शुभकामना करता हूँ । *रीडर, संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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