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________________ साधना और समाज सेवा : जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में वैयक्ति कता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय जीवन के रहे हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थकरों अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि 'मनुष्य का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों की करुणा के लिए मनुष्य नहीं है यदि वह सामाजिक नहीं है।' मनुष्य समाज में ही उत्पन्न ही है। जैन धर्म में जो सामाजिक जीवन या संघ जीवन के सन्दर्भ होता है, समाज में ही जीता है और समाज में ही अपना विकास उपस्थित हैं, वे बाहर से देखने पर निषेधात्मक लगते हैं, इसी आधार करता है। वह कभी भी सामाजिक जीवन से अलग नहीं हो सकता पर कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि जैन धर्म एक समाजहै। तत्त्वार्थसूत्र में जीवन की विशिष्टता को स्पष्ट करते हुए कहा गया निरपेक्ष धर्म है। जैनों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है कि पारस्परिक सहयोग ही जीवन का मूलभूत लक्षण है। व्यक्ति की व्याख्या मुख्य रूप से निषेधात्मक दृष्टि के आधार पर की है, में राग और द्वेष के तत्त्व अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं किन्तु जब किन्तु उनको निषेधात्मक और समाज-निरपेक्ष समझ लेना भ्रान्ति पूर्ण द्वेष का क्षेत्र संकुचित होकर राग का क्षेत्र विस्तृत होता है तब व्यक्ति ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ही स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि में सामाजिक चेतना का विकास होता है और यह सामाजिक चेतना ये पाँच महाव्रत सर्वथा लोकहित के लिए ही हैं। जैन धर्म में जो व्रतवीतरागता की उपलब्धि के साथ पूर्णता को प्राप्त करती है, क्योंकि व्यवस्था है वह सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास है। हिंसा, वीतरागता की भूमिका पर स्थित होकर ही निष्काम भावना से और असत्य वचन, चौर्यकर्म, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह) हमारे सामाजिक कर्तव्य-बुद्धि से लोक-मंगल किया जा सकता है। अत: जैन धर्म का, जीवन को दूषित बनाने वाले तत्व हैं। हिंसा सामाजिक अनस्तित्व वीतरागता और मोक्ष का आदर्श सामाजिकता का विरोधी नहीं है। की द्योतक है, तो असत्य पारस्परिक विश्वास को भंग करता है। चोरी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके व्यक्तित्व का निर्माण का तात्पर्य तो दूसरों के हितों और आवश्यकताओं का अपहरण और सामाजिक जीवन पर आधारित है। व्यक्ति जो कुछ बनता है वह अपने शोषण ही है। व्यभिचार जहाँ एक ओर पारिवारिक जीवन को भंग सामाजिक परिवेश के द्वारा ही बनता है। समाज ही उसके व्यक्तित्व करता है, वहीं दूसरी ओर वह दूसरे को अपनी वासनापूर्ति का साधन और जीवन-शैली का निर्माता है। यद्यपि जैन धर्म सामान्यतया व्यक्तिनिष्ठ मानता है और इस प्रकार से वह भी एक प्रकार का शोषण ही है। तथा निवृत्तिप्रधान है और उसका लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, किन्तु इसी प्रकार परिग्रह भी दूसरों को उनके जीवन की आवश्यकताओं इस आधार पर यह मान लेना कि जैनधर्म असामाजिक है या उसमें और उपयोगों से वंचित करता है, समाज में वर्ग बनाता है और सामाजिक सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितांत भ्रमपूर्ण होगा। जैन साधना शान्ति को भंग करता है। संग्रह के आधार पर जहाँ एक वर्ग सुख, यद्यपि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की बात करती है किन्तु उसका सुविधा और ऐश्वर्य की गोद में पलता है वही दूसरा जीवन की मूलभूत तात्पर्य यह भी नहीं है कि वह सामाजिक कल्याण की उपेक्षा करती है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी तरसता है। फलत: सामाजिक यदि हम मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को जीवन में वर्ग-विद्वेष और आक्रोश उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार 'धों धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का ___सामाजिक शान्ति और सामाजिक समत्व भंग हो जाते हैं। सूत्रकृतांग अर्थ होगा-जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रखता है, वही धर्म में कहा गया है कि यह संग्रह की वृत्ति ही हिंसा, असत्य, चौर्य कर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और तथा व्यभिचार को जन्म देती है और इस प्रकार से वह सम्पूर्ण सामाजिक हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती जीवन की विषाक्त बनाती है। यदि हम इस सन्दर्भ में सोचे तो यह स्पष्ट हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशांति की कारणभूत होती लगेगा कि जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं, अधर्म है। इसलिए घृणा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि की जो अवधारणायें हैं, वे मूलत: सामाजिक जीवन के लिए ही है। को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि की धर्म कहा जैन साधना-पद्धति को मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ की गया है। क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविक-वृत्ति भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया का रक्षण करते हैं वे धर्म हैं और जो उसे खण्डित करते हैं वे अधर्म जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैंहैं। धर्म की यह व्याख्या दूसरों से हमारे सम्बन्धों के सन्दर्भ में है सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदं, और इसलिए इसे हम सामाजिक-धर्म भी कह सकते हैं। क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वं जैनधर्म सदैव यह मानता रहा है कि साधना से प्राप्त सिद्धि माध्यस्थाभावं विपरीत वृत्तौ का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। स्वयं भगवान् सदा ममात्मा विद्धातु देव। महावीर का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे वीतरागता और कैवल्य "हे प्रभु ! हमारे जीवन में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों की प्राप्ति के पश्चात् जीवन पर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य करते के प्रति प्रमोद, दुखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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