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________________ ४९४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट्सन्निधायनम् रह पाना कठिन है और इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि जैन परम्परा ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ ज: ज: ज: विसर्जनमा की पूजा अनुष्ठान विधियों में हिन्दू तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव आया। ये मन्त्र जैन दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं, क्योंकि जहाँ ब्राह्मण परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर जैन परम्परा के विविध पूजा-विधान देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन परम्परा में तन्त्र युग में जैन परम्परा के विविध अनुष्ठानों में गृहस्थ के सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थंकर या सिद्ध न तो आह्वान करने पर उपस्थित नित्यकर्म के रूप में सामायिक, प्रतिक्रमण आदि षडावश्यकों के स्थान हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जाते ही हैं। पं० फलचन्दजी ने पर जिनपूजा को प्रथम स्थान दिया गया। जैन परम्परा में स्थानकवासी. 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' नामक पुस्तक की भूमिका में विस्तार से इसकी। श्वेताम्बर-तेरापंथ तथा दिगम्बर तारणपंथ को छोड़कर शेष परम्पराएँ समीक्षा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन पूजा-मन्त्रों को सम्बन्धी जैन पजा-मन्त्रों को जिनप्रतिमा के पूजन को श्रावक का एक आवश्यक कर्तव्य मानती हैं। ब्राह्मण मन्त्रों का अनुकरण माना है। तुलना कीजिए श्वेताम्बर परम्परा में पूजा सम्बन्धी जो विविध अनुष्ठान प्रचलित हैं उनमें आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । प्रमुख हैं- अष्टप्रकारीपूजा, स्नात्रपूजा या जन्मकल्याणकपूजा, विसर्जनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। पंचकल्याणकपूजा, लघुशान्तिस्नात्रपूजा, बृहद्शान्तिस्नात्रपूजा, नमिऊणपूजा, मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। अर्हत्पूजा, सिद्धचक्रपूजा, नवपदपूजा, सतरहभेदीपूजा, अष्टकर्म की तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।।२।। पूजा, अन्तरायकर्म की पूजा, भक्तामरपूजा आदि। दिगम्बर परम्परा में -विसर्जनमंत्र। प्रचलित पूजा अनुष्ठानों में अभिषेकपूजा, नित्यपूजा, देवशास्त्रगुरुपूजा, इनके स्थान पर हिन्दू धर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैं- जिनचेत्यपूजा, सिद्धपूजा आदि प्रचलित हैं। इन सामान्य पूजाओं के आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । अतिरिक्त पर्वदिनपूजा आदि विशिष्ट पूजाओं का भी उल्लेख हुआ है। पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वरम् ।।१।। पर्वपूजाओं में षोडशकारणपूजा, पंचमेरुपूजा, दशलक्षणपूजा,रत्नत्रयपूजा मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन । आदि का उल्लेख किया जा सकता है। यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥२॥ दिगम्बर परम्परा की पूजा-पद्धति में बीसपंथ और तेरहपंथ में इसी प्रकार अष्टद्रव्यपूजा एवं सतरह भेदी पूजा में सचित्त कुछ मतभेद है। जहाँ बीसपंथ पुष्प आदि सचित्त द्रव्यों से जिनपूजा को द्रव्यों का उपयोग, प्रभु को वस्त्राभूषण, गंध, माल्य, आदि का समर्पणः स्वीकार करता है वहाँ तेरहपंथ सम्प्रदाय में उसका निषेध किया गया है। यज्ञ का विधान, विनायकयन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन पुष्प के स्थान पर वे लोग रंगीन अक्षतों (तन्दुलों) का उपयोग करते हैं। परम्परा के अनुकूल नहीं है। इधर जब तान्त्रिक साधना का प्रभाव बढ़ने इसा प्रकार जहा बासपथ में बठकर वही तरहपथ में खड़ रहकर पूजा लगा, तो उसमें भी इन पूजा-विधियों का प्रवेश हआ। दसवीं शती के करने की परम्परा है। अनन्तर इन विधि-विधानों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ, फलत: पूर्व यहाँ विशेषरूप से उल्लेखनीय यह है कि श्वेताम्बर और प्रचलित आध्यात्मिक उपासना गौण हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रंथों में अष्टद्रव्यों से पूजा के ही आह्वान, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणकों उल्लेख मिलते हैं। यापनीय ग्रंथ वारांगचरित (त्रयोविंशसर्ग) में जिनपूजा की स्मति के लिए व्यवहत होने लगे। पजा को वैयावत्य का अंग माना सम्बन्धी जो उल्लेख हैं वे श्वेताम्बर परम्परा के राजप्रश्नीयसत्र के पजा जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य स्थान प्राप्त सम्बन्धी उल्लेखों से बहुत कुछ मिलते है। हुआ। पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूलभावना में परिवर्तन हआ। द्रव्यपूजा को अतिथि संविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। उसे जैन पूजा-विधान की आध्यात्मिक प्रकृति गृहस्थ का एक अनिवार्य कर्तव्य बताया गया। यह भी हिन्दु परम्परा की . यह सत्य है कि जैन पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठानों पर अनुकृति ही थी। जहाँ यह माना जाता हो कि तीर्थंकरों ने दीक्षा के समय भक्तिमार्ग एवं तन्त्र साधना का व्यापक प्रभाव है और उनमें अनेक स्तरों सचित्तद्रव्यों, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य आदि का त्याग कर पर समरूपताएँ भी हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि इन पूजा विधानों में भी दिया था, मात्र यही नहीं जिस जैन परम्परा में एक वर्ग ऐसा भी हो जो। जैनों की आध्यात्मिक जीवन शैली स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, तीर्थंकर के कवलाहार का भी निषेध करता हो, वही परम्परा, तीर्थंकर की निषेध करता हो नदी पर तकरी क्योंकि उनका प्रयोजन भिन्न है। यह उनमें बोले जाने वाले मंत्रों से स्पष्ट पूजा में वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य, नवैद्य आदि अर्पित करे, यह क्या हो जाता हैसिद्धान्त की विडम्बना नहीं ही जायेगी? मंदिर एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा "ऊँ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युआदि से सम्बन्धित सम्पूर्ण अनुष्ठान जैन परम्परा में ब्राह्मण परम्परा की निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।" देन है और उसकी मूलभूत प्रकृति के प्रतिकूल कहे जा सकते हैं। वस्तुत: इसीप्रकारचन्दन आदि के समर्पण के समय जल के स्थान पर किसी भी परम्परा के लिए अपनी सहवर्ती परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित चन्दन आदि शब्द बोले जाते हैं, शेष मंत्र वही रहता है, किन्त पजा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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