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________________ तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि ४८५ अवश्य है कि जैनों की दृष्टि में पाशविक शुद्ध स्वार्थों से परिपूर्ण, मात्र दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं, अपितु जैविक एषणाओं की पूर्ति में संलग्न जीवन न तो रक्षणीय है, न उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि वरेण्य; किन्तु यह दृष्टि तो तंत्र की भी है, क्योंकि वह भी पशु अर्थात् इन्द्रियों के मनोज्ञ का अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष पाशविक पक्ष का संहार कर पाश से मुक्त होने की बात करता है। जैनों (मानसिक विक्षोभो) का कारण बनते हैं, अनासक्त का वीतराग के लिए के अनुसार जीवन उस समीप तक वरेण्य और रक्षणीय है जिस सीमा नहीं। अत: जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के तक वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है और अपने निषेध की नहीं। आध्यात्मिक विकास के माध्यम से लोकमंगल का सृजन करता है। प्रशस्त तांत्रिक साधना और जैन साधना दोनों में ही इस सम्बन्ध में जैन तांत्रिक साधना और लोक कल्याण का प्रश्न सहमति देखी जाती है। वस्तुत: जीवन की एकान्त रूप से वरेण्यता तांत्रिक साधना का लक्ष्य आत्मविशुद्धि के साथ लोक कल्याण और एकान्त रूप से जीवन का निषेध दोनों ही अवधारणाएँ उचित नहीं भी है। यह सत्य है कि जैन धर्म मूलतः संन्यासमार्गी धर्म है। उसकी है। यही जैनों की जीवनदृष्टि है। वासनात्मक जीवन के निराकरण द्वारा साधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर ही अधिक जोर दिया आध्यात्मिक जीवन का विकास-यही तंत्र और जैन दर्शन दोनों की गया है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोकमंगल या जीवनदृष्टि है और इस अर्थ में वे दोनों विरोधी नहीं हैं, सहगामी हैं। लोककल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैन धर्म यह तो अवश्य फिर भी सामान्य अवधारणा यह है कि तन्त्र दर्शन में ऐहिक मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से समाज निरपेक्ष, एकांकी जीवन को सर्वथा वरेण्य माना गया है। उसकी मान्यता है कि जीवन जीवन अधिक ही उपयुक्त है किन्तु इसके साथ ही साथ वह यह भी आनन्दपूर्वक जीने के लिए है। जैन धर्म में तप-त्याग की जो महिमा मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक गायी गई है उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैन धर्म कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात जीवन का निषेध सिखाता है। अत: यहां इस भ्रान्ति का निराकरण कर का साक्षी है कि १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन धर्म के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की तक्त जीवन भर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की जैन धर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक पूर्णतया उपेक्षा की जाय। जैन धर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के चारित्रिक उन्नयन से ही सामाजिक के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथभाष्य १२ में कहा है कि मोक्ष का कल्याण की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की मूलभूत इकाई साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। है, जब तक व्यक्ति का चारित्रिक विकास नहीं होगा, तब तक उसके शरीर शाश्वत आनन्द के कूल में ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से द्वारा सामाजिक कल्याण नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सार-संभाल भी करना है। में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होनी चाहिए, क्योंकि सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की सकती। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर पूर्ति की एक साधना के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता, क्योंकि समाज जब भी विद्या का हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है जो आध्यात्मवाद और खड़ा होता है वह त्याग और समर्पण के मूल्यों पर ही होता है। भौतिकवाद में अन्तर करती है। भौतिकवाद में उपलब्धियाँ या जैविक लोकसेवक और जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च रहें-यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है। चरित्रहीन मूल्यों के साधन हैं। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होगें। व्यक्तिगत वस्तुओं का त्याग और ग्रहण, दोनों ही साधना के लिए हैं। स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो तांत्रिक साधनाएँ की जाती हैं, वे जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य और एक ऐसे सामाजिक जीवन के लिए घातक ही होती हैं। क्या चोर, डाकू और निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्त है जो शोषकों का संगठन समाज कहलाने का अधिकारी है? क्या चोर, डाकू वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को और लुटेरे अपने उद्देश्य मे सफल होने के लिए देवी-देवताओं को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की प्रसन्न करने हेतु जो तांत्रिक साधना करते या करवाते हैं, उसे सही अर्थ स्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति में साधना कहा जा सकता है? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि की संस्थापना है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति सामाजिक कल्याण का आधार बन सकती उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और है। प्रश्नव्याकरणसूत्र१५ में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित जहाँ तक उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान महावीर ने प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन आचारांगसूत्र १३ एवं उत्तराध्ययनसूत्र १४ में इस बात को बहुत ही साधना में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये जो पाँच स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने व्रत माने गये हैं, वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है। विषयों से सम्पर्क होता है, तब उसे सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद- जैन तन्त्र के दार्शनिक आधार दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि जैन तत्त्व दर्शन के अनुसार जीव कर्मों के आवरण के कारण इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या बन्धन में है। बन्धन से मुक्ति के लिए एक ओर कर्म आवरण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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