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________________ जैन साधना में ध्यान ४६७ ३. श्लिष्ट मन- यह मन की स्थिरता की अवस्था है। इस या ध्यान की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त किसी विषय पर विचार अवस्था में चित्त की स्थिरता का आधार या आलम्बन विषय होता है। या ध्यान करता रहता है। इसलिए इसमें भी सभी चित्तवृत्तियों का निरोध इसमें जैसे-जैसे स्थिरता आती है, आनन्द भी बढ़ता जाता है। नहीं होता, तथापि यह योग की पहली सीढ़ी है। ४. सलीन मन- यह मन की वह अवस्था है जिसमें संकल्प- ५. निरुद्ध चित्त- इस अवस्था में चित्त की सभी वत्तियों का विकल्प एवं मानसिक वृत्तियों का लय हो जाता है। इसको मन की (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक निरुद्धावस्था भी कहा जा सकता है। यह परमानन्द है, क्योंकि इसमें स्थिर शांत अवस्था में आ जाता है। सभी वासनाओं का विलय हो जाता है। - जैन, बौद्ध और योग दर्शन में मन की इन विभिन्न अवस्थाओं बौद्ध दर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ- अभिधम्मत्थसंगहो के नामों में चाहे अन्तर हो, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई के अनुसार बौद्ध दर्शन में भी चित्त (मन) चार प्रकार का है- १. अन्तर नहीं है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है। कामावचर, २. रूपावचर, ३. अरूपावचर और ४. लोकोत्तर।३४ १. कामावचर चित्त- यह चित्त की वह अवस्था है जिसमें जैन दर्शन बौद्ध दर्शन योग दर्शन कामनाओं और वासनाओं का प्राधान्य होता है। इसमें वितर्क एवं विचारों विक्षिप्त कामावचर क्षिप्त एवं मूढ़ की अधिकता होती है। मन सांसारिक भोगों के पीछे भटकता रहता है। यातायात रूपावचर विक्षिप्त २. रूपावचर चित्त- इस अवस्था में वितर्क-विचार तो होते श्लिष्ट अरूपावचर एकाग्र हैं, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। चित्त का आलम्बन बाह्य सुलीन लोकोत्तर निरुद्ध स्थूल विषय ही होते हैं। यह योगाभ्यासी चित्त की प्राथमिक अवस्था है। जैन दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर चित्त ३. अरूपावचर चित्त- इस अवस्था में चित्त का आलम्बन और योगदर्शन के क्षिप्त और मूढ़ चित्त समानार्थक हैं, क्योंकि सभी के रूपवान बाह्य पदार्थ नहीं है। इस स्तर पर चित्त की वृत्तियों में स्थिरता अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं एवं कामनाओं की बहुलता होती है लेकिन उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय होती है। इसी प्रकार जैन दर्शन का यातायात मन, बौद्ध दर्शन का अत्यन्त सूक्ष्म जैसे अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिंचनता रूपावचर चित्त और योग दर्शन का विक्षिप्त चित्त भी समानार्थक हैं, होते हैं। सामान्यतया सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में अल्पकालिक ४. लोकोत्तर चित्त- इस अवस्था में वासना-संस्कार, राग- स्थिरता होती है तथा वासनाओं के वेग में थोड़ी कमी अवश्य हो जाती द्वेष एवं मोह का प्रहाण हो जाता है। चित्त विकल्पशून्य हो जाता है। इस है। इसी प्रकार जैन दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध दर्शन का अरूपावचर अवस्था की प्राप्ति कर लेने पर निश्चित रूप से अर्हत् पद एवं निर्वाण की चित्त और योग दर्शन का एकाग्रचित भी समान ही है। सभी ने इसको प्राप्ति हो जाती है। मन की स्थिरता की अवस्था कहा है। चित्त की अन्तिम अवस्था जिसे योग दर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ- योगदर्शन में जैन दर्शन में सुलीन मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग दर्शन चित्तभूमि (मानसिक अवस्था) के पाँच प्रकार हैं। १. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. में निरुद्ध चित्त कहा गया है, समान अर्थ के द्योतक हैं। इसमें वासना, विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्धा३५ ।। संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव हो जाता है। ध्यान-साधना १. क्षिप्त चित्त- इस अवस्था में चित्त रजोगुण के प्रभाव में का लक्ष्य चित्त की इस वासना संस्कार एवं संकल्प-विकल्प से रहित रहता है और एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है। स्थिरता अवस्था को प्राप्त करना है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि क्रम से नहीं रहती है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसमें मन अभ्यास बढ़ाते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से और इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता। श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस २. मूढ़ चित्त- इस अवस्था में तन की प्रधानता रहती है और तरह अभ्यास करने से निरालम्बन ध्यान होने लगता है। निरालम्बन इसमें निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है। निद्रावस्था में चित्त की ध्यान से समत्व प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए। योगी वृत्तियों का कुछ काल के लिए तिरोभाव हो जाता है, परन्तु यह अवस्था को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ योगावस्था नहीं है, क्योंकि इसमें आत्मा साक्षी भाव में नहीं होता है। सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा ३. विक्षिप्त चित्त- विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए का ध्यान करे।३६ एक विषय पर लगता है, पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर दौड़ जाता इस प्रकार चित्त-वृत्तियों या वासनाओं का विलयन ही समालोच्य है और पहला विषय छूट जाता है। यह चित्त की आंशिक स्थिरता की ध्यान परम्पराओं का प्रमुख लक्ष्य रहा है, क्योंकि वासनाओं द्वारा ही मन अवस्था है। क्षोभित होता है, जिससे चेतना का समत्व भंग होता है। ध्यान इसी ४. एकाग्र चित्त- यह वह अवस्था है, जिसमें चित्त देर तक समत्व या समाधि को प्राप्त करने की साधना है। एक विषय पर लगा रहता है। यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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