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________________ जैन साधना में ध्यान ४६५ ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आंख बन्द करनी होती है। सूत्र में कहा गया है "आत्मा तप से परिशुद्ध होती है।२४ सम्यक्-ज्ञान जैसे ही आंख बन्द होती है-व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य जगत् से टूटकर से वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होता है। सम्यग्रदर्शन से तत्त्व-श्रद्धा अन्तर्जगत् से जुड़ता है, अन्तर का परिदृश्य सामने आता है, अब उत्पन्न होती है। सम्यग्चारित्र आस्रव का निरोध करता है। किन्तु इन हमारी चेतना का विषय बाह्य वस्तुएं न होकर मनोसृजनाएं होती हैं। जब तीनों से भी मुक्ति सम्भव नहीं होती, मुक्ति का अन्तिम कारण तो निर्जरा व्यक्ति इस मनोसृजनाओं (संकल्प-विकल्पों) का द्रष्टा बनता है, उसे है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाना ही मुक्ति है और कर्मों की तप से एक ओर इनकी पर-निमित्तता (विभावरूपता) का बोध होता है तथा ही निर्जरा होती है। अत: ध्यान तप का एक विशिष्ट रूप है, जो दूसरी ओर अपने साक्षी स्वरूप का बोध होता है। आत्मा-अनात्म का आत्मशुद्धि का अन्यतम कारण है। विवेक या स्व-पर के भेद का ज्ञान होता है। कर्ता-भोक्ता भाव के विकल्प वैसे यह भी कहा जाता है कि आत्मा व्युपरत क्रिया निवृत्ति क्षीण होने लगते हैं। एक निर्विकल्प आत्म-दशा की अनुभूति होती है। नामक शुक्ल ध्यान में आरूढ़ होकर ही मुक्ति को प्राप्त होता है। अत: दूसरे शब्दों में मन की भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है। मनोसृजनाएं या हम यह कह सकते हैं कि जैन साधना-विधि में ध्यान मुक्ति का अन्तिम संकल्प-विकल्प विलीन होने लगते हैं। चेतना की सभी विकलताएं कारण है। ध्यान एक ऐसी अवस्था है जब आत्मा पूर्ण रूप से 'स्व' में समाप्त हो जाती हैं। मन आत्मा में विलीन हो जाता है। सहज-समाधि स्थिति होती है और आत्मा का 'स्व' में स्थित होना ही मुक्ति या निर्वाण प्रकट होती है। इस प्रकार आकांक्षाओं, वासनाओं, संकल्प-विकल्पों एवं की अवस्था है। अत: ध्यान ही मुक्ति बन जाता है। तनावों से मुक्त होने पर एक अपरिमित निरपेक्ष आनन्द की उपलब्धि योग दर्शन में ध्यान को समाधि का पूर्ण चरण माना गया है। होती है, आत्मा अपने चिदानन्द स्वरूप में लीन रहता है। इस प्रकार उसमें भी ध्यान से ही समाधि की सिद्धि होती है। ध्यान जब अपनी ध्यान आत्मा को परमात्मा या शुद्धात्मा से जोड़ता है। अत: वह पूर्णता पर पहुंचता है तो वही समाधि बन जाता है। ध्यान की इस आत्मसाक्षात्कार या परमात्मा के दर्शन की एक कला है। निर्विकल्प दशा को न केवल जैन दर्शन में, अपितु सम्पूर्ण श्रमण परम्परा में और न केवल सम्पूर्ण श्रमण परम्परा में अपितु सभी धर्मों की ध्यान मुक्ति का अन्यतम कारण साधन-विधियों में मुक्ति का अंतिम उपाय माना गया है। जैन धर्म में ध्यान मुक्ति का जन्म कारण माना जा सकता है योग चाहे चित्त वृत्तियों के निरोध में निर्विकल्प समाधि हो या जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास को जिन १४ सोपानों (गुणस्थानों) आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला हो, वह ध्यान ही है। का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान को अयोगी केवली गुणस्थान कहा गया है। अयोगी केवली गुणस्थान वह अवस्था है जिसमें ध्यान और समाधि वीतराग-आत्मा अपने काययोग, वचनयोग, मनोयोग अर्थात् शरीर, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को वाणी और मन की गतिविधियों का निरोध कर लेता है और उनके निरुद्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोष्ठागार में लगी हुई आग होने पर वह मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया सम्भव को शान्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार मुनिजीवन के शीलव्रतों में है शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण व्युपरत क्रिया निवृत्ति के द्वारा। अत: ध्यान लगी हुई वासना या आकांक्षारूपी अग्नि का प्रशमन करना भी आवश्यक मोक्ष का अन्यतम् कारण है। जैन परम्परा में ध्यान में स्थित होने के पूर्व है। यही समाधि है।२५ धवला में आचार्य वीरसेन ने ज्ञान, दर्शन और जिन पदों का उच्चारण किया जाता है, वे निम्न हैं चारित्र में सम्यक् अवस्थिति को ही समाधि कहा है।२६ वस्तुत: चित्तवृत्ति ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि२३ का उद्वेलित होना ही असमाधि है और उसकी इस उद्विग्नता का समाप्त अर्थात् “मैं शरीर से स्थिर होकर, वाणी से मौन होकर, मन हो जाना ही समाधि है। उदाहरण के रूप में जब वायु के संयोग से जल को ध्यान में नियोजित कर शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता हूँ।" तरंगायित होता है तो उस तरंगित जल में रही हुई वस्तुओं का बोध नहीं यहां हमें स्मरण रखना चाहिए कि 'अप्पाणं वोसिरामि' का अर्थ, आत्मा होता, उसी प्रकार तनावयुक्त उद्विग्न चित्त में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का का विसर्जन करना नहीं है, अपितु देह के प्रति अपनेपन के भाव का साक्षात्कार नहीं होता है। चित्त की इस उद्विग्नता का या तनावयुक्त स्थिति विसर्जन करना है। क्योंकि विसर्जन या परित्याग आत्मा का नहीं अपनेपन का समाप्त होना ही समाधि है। ध्यान भी वस्तुत: चित्त की वह निष्पकम्प के भाव अर्थात् ममत्वबुद्धि का होता है। जब कायिक, वाचिक और अवस्था है जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षी होता है। वह मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है, तभी ध्यान की चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति है। अत: ध्यान और समाधि समानार्थक हैं; सिद्धि होती है और जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो आत्मा अयोगदशा फिर भी दोनों में एक सूक्ष्म अन्तर है। वह अन्तर इस रूप में है कि ध्यान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः यह स्पष्ट है कि ध्यान मोक्ष का समाधि का साधन है और समाधि साध्य है। योगदर्शन के अष्टांग योग अन्यतम कारण है। में समाधि के पूर्ण चरण ध्यान माना गया है। ध्यान जब सिद्ध हो जाता जैन परम्परा में ध्यान आन्तरिक तप का एक प्रकार है। इस है, तब वह समाधि बन जाता है। वस्तुत: दोनों एक ही हैं।२७ ध्यान की आन्तरिक तप को आत्माविशुद्धि का कारण माना गया है। उत्तराध्ययन पूर्णता समाधि में है। यद्यपि दोनों में ही चित्तवृत्ति की निष्पकंपता या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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