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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड -६ भारतीय विद्याके अनन्यसाधक डॉ० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी* मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती का आयोजन अप्रैल माह में होने जा रहा है। जैनकला के अध्ययन से मैं विगत अट्ठाइस वर्षों से जुड़ा हूँ और मैंने जैन प्रतिमाविज्ञान विषयक अपना शोध इसी संस्था से सम्बद्ध होकर प्रारम्भ किया था, तब यह संस्थान पार्श्वनाथ शोध संस्थान के रूप में जाना जाता था। उस समय से आजतक मैं बराबर इस संस्था की शोध, अध्ययन एवं प्रकाशन सबंधी गतिविधियों का सहभागी और साक्षी रहा हूँ। स्पष्टत: यह संस्था शोध और प्रकाशन के क्षेत्र में निरन्तर नई-नई संभावनाओं को ढूँढती हुई श्रेष्ठतम स्तर को स्पर्ष करती रही है । जैन संस्था होते हुए भी विचारों की उदारता तथा शोध अध्ययन में इतिहास और प्रमाण के प्रति प्रतिबद्धता, इस संस्थान की विशिष्टता रही है । अपने शोध के दौरान कभी भी ऐसा नहीं लगा कि मुझे कुछ बंधे या नियत मानदण्डों की सीमा में सोचना या लिखना है । यही कारण है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं और पूरी जैन परम्परा और कला के ब्राह्मण एवं बौद्ध परम्परा एवं कला के सन्दर्भ में आदान-प्रदान एवं समन्वय के स्वर को प्रमाणों, विश्लेषणों के आधार पर प्रस्तुत करने में मुझे कभी किसी सीमा से नहीं बंधना पड़ा। पार्श्वनाथ विद्यापीठ में शोध-अध्ययन की इस व्यापक, समन्वयात्मक एवं ऐतिहासिक दृष्टि को बनाने में प्रो० सागरमल जैन का पूरा सहयोग रहा है। प्रो० जैन के व्यक्तित्व चिंतन एवं लेखन में इतिहास अध्ययन की मर्यादा तथा सत्य की खोज ही प्रमुख रही है । जो कुछ प्रमाण सम्मत है, वही इतिहास का सत्य है और उसे निरूपित करने या स्वीकार करने में प्रो० जैन सदैव तत्पर रहे हैं । उनके इस चिन्तन ने संस्थान के स्वरूप को एक विशाल आयाम दिया और संस्थान जैन विद्या कि शोध अध्ययन से जुड़े होते हुए भी सम्पूर्ण भारतीय विद्या के अध्ययन का एक प्रमुख केन्द्र बन गया । प्रो० जैन एक सहज एवं उदार व्यक्तित्व वाले जैन विद्या या यों कहिए कि भारतीय विद्या के विद्वान् हैं, जिनकी सारस्वत साधना अविरल रही है। उनके समय में संस्थान ने न केवल शोध-प्रबन्धों के माध्यम से जैनविद्या के बहुआयामी शोध को आगे बढ़ाया वरन् स्तरीय प्रकाशन द्वारा संस्थान को अखिल भारतीय पहचान भी दी। संस्थान में आकर मुझे बराबर प्राचीन ऋषि परम्परा की जीवित अनुभूति होती रही है, जिसके मूल में प्रो० जैन का योगदान रहा है । प्रो० जैन यहाँ एक परिवार के मुखिया के समान सभी के बीच स्नेह, सौहार्द के साथ कार्यरत रहे हैं। मैं उनके बहमखी व्यक्तित्व को नमन करते हए ईश्वर से उनके दीर्घायु होने की कामना करता हूँ। *अध्यक्ष कला-इतिहास विभाग, कला-संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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