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________________ ४६० के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है। जैन परम्परा में सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमें यदि श्रद्धा का तत्त्व समाहित है तो वह तत्त्वश्रद्धा ही है। लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा ही माना गया है। अतः गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन दर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है वह गीता में नहीं है। यद्यपि गीता भी यह स्वीकार करती है नैतिक जीवन के लिए संशयरहित होना आवश्यक है। श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभी नैतिक कर्म निरर्थक ही माने गये हैं । ७५ गीता में श्रद्धा तीन प्रकार की मानी गई है- १. सात्विक, २. राजस और ३ तामस सात्विक श्रद्धा सतोगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है। राजस श्रद्धाक्ष और राक्षसों के प्रति होती है। इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तामस श्रद्धा भूत-प्रेत आदि के प्रति होती है । ७६ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ जिस प्रकार जैन दर्शन में शंका या सन्देह को सम्यग्दर्शन का दोष माना गया है उसी प्रकार गीता में भी संशयात्मकता को दोष माना गया है।७७ जिस प्रकार जैन-दर्शन में फलाकांक्षा भी सम्यग्दर्शन का अतिचार (दोष) मानी गई है उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को दोष ही माना गया है। गीता के अनुसार जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है अथवा भक्ति करता है वह साधक निम्न श्रेणी का ही है फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से आगे नहीं ले जाती है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं जो लोग विवेक ज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ अन्यान्य देवताओं की शरण ग्रहण करते हैं, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूँ और उस श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। लेकिन उन अल्पबुद्धि लोगों का वह फल नाशवान होते है । देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करने वाला मुझे ही प्राप्त होता है। ७८ १. ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है। इसी दैन्य भाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थित करता है। तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति होती है श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है। Jain Education International ४. श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है। यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है, यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्न स्तर की मानी गई है। वस्तुतः इसे श्रद्धा केवल उपचार से ही कहा जाता है। अपनी मूल भावनाओं में तो यह एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है। ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं हो सकती है। नैतिक दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गई श्रद्धा का ही कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है। ७९ तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गीता में स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छूट कर अन्त में मुझे ही प्राप्त हो जायेगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं श्रीकृष्ण ही वहन करते है१० जबकि जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनुपलब्ध ही है। उपसंहार गीता में श्रद्धा या भक्ति अपने आधारों की दृष्टि से चार प्रकार व्यक्तित्व का निर्माण इसी जीवन दृष्टि के आधार पर होता है। गीता की मानी गई हैमें इसी तथ्य को यह कहकर बताया है कि पुरुष जिसकी श्रद्धा जैसी होती है वैसा ही वह बन जाता है। हम अपने को जैसा बनाना चाहते हैं, अपनी जीवन दृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें। क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीवन जीने का ढंग होता है वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है। और जैसा उसका चरित्र होता है वैसा ही उसके व्यक्तित्व का उभार होता है। अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा का जीवन में क्या मूल्य है, इस पर भी विचार अपेक्षित है। यदि हम सम्यग्दर्शन को दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार करते हैं, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। सम्यग्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है, वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय तत्त्व है। हमारे चरित्र या २. जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना। यह श्रद्धा या भक्ति का दूसरा रूप है। इसमें यद्यपि श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती जबकि प्रथम स्थिति में होने वाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है। संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है। जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है। संदर्भ १. ३. तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त व्यक्ति की होती है। कठिनाई में फँसा हुआ व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबरने में असमर्थ पाता है और २. दशवैकालिक, ४/११ इसिमासियाई सुतं गहावइज्जं नामज्झयणं , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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