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________________ जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन ४५३ सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता होने से शुद्ध होंगे। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि सम्यग्दर्शन हैं दूसरा व्यक्ति वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के के अभाव से विचार-प्रवाह सराग, सकाम या फलाशा से युक्त होता है यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाशा बन्धन का कारण होने से ही कहा जायेगा, यद्यपि दोनों की उपलब्धि विधि में अन्तर है। एक ने पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती है, जबकि सम्यग्दर्शन की उपस्थिति से उसे तत्त्व-साक्षात्कार या स्वत: की अनुभूति में पाया, तो दूसरे ने श्रद्धा विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है, के माध्यम से। फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है अत: सम्यग्दृष्टि से युक्त सारा पुरुषार्थ वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से परिशुद्ध होता है।४२ प्राप्त की जा सकती है, वे दो हैं- या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व-साक्षात्कार करे अथवा उन ऋषियों, साधकों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व- बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान साक्षात्कार किया है। तत्त्वश्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का क्या स्थान है, यह बुद्ध के अनिवार्य विकल्प है जब तक साधक तत्त्व-साक्षात्कार नहीं कर लेता। निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं किअन्तिम स्थिति तो तत्त्व-साक्षात्कार की ही हैं। इस सम्बन्ध में पं० भिक्षुओं! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे सुखलाल जी लिखते हैं- "तत्त्वश्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अनुत्पन्न अकुशल-धर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्व-साक्षात्कार है। तत्त्वश्रद्धा तो वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ! मिथ्या-दृष्टि। तत्त्व-साक्षात्कार का एक सोपान मात्र है। वह सोपान दृढ़ हो तभी भिक्षुओ! मिथ्यादृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है।"३८ जाते हैं, उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं। भिक्षुओ! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे जैन आचार दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हों तथा उत्पन्न कुशल-धर्मों में वृद्धि होती सम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है। नन्दीसूत्र में हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं! सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दर्शन को संघ रूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन भिक्षुओ! सम्यग्दृष्टि वाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते भूपीठिका (आधारशिला) कहा गया है जिस पर ज्ञान और चारित्र रूपी हैं, उत्पन्न कुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं।४३ इस उत्तम धर्म की मेखला अर्थात् पर्वतमाला स्थित रही हुई है।३९ जैन प्रकार बुद्ध सम्यग्दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी आचार दर्शन में सम्यग्दर्शन को मुक्ति का अधिकार-पत्र कहा जा सकता दृष्टि में मिथ्यादृष्टिकोण इधर (संसार) का किनारा है और सम्यग्दृष्टिकोण है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के बिना उधर (निर्वाण) का किनारा है।४ बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में आचरण में यथार्थता बौद्ध दर्शन में सम्यग्दृष्टि का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। या सचारित्रता नहीं आती और सचारित्रता के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं वैदिक परम्परा एवं गीता में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) का स्थान होता।४० आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं वैदिक-परम्परा में भी सम्यग्दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता।४१ जैन विचारणा के अनुसार आचरण का सत् अथवा असत् है। जैनदर्शन के समान ही मनुस्मृति में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होना कर्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है। सम्यग्दृष्टित्व से परिनिष्पन्न व्यक्ति कर्म के बन्धन में नहीं आता है, लेकिन सम्यग्दर्शन से विहीन होने वाला आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्यादृष्टि से परिनिष्पन्न होने व्यक्ति संसार में परिभ्रमित होता रहता है। वाला आचरण सदैव असत् होगा, इसी आधार पर सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट गीता में यद्यपि सम्यग्दर्शन शब्द का अभाव है फिर भी रूप से कहा गया है कि व्यक्ति प्रबुद्ध है, भाग्यवान है और पराक्रमी भी सम्यग्दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ में लेने पर गीता में उसका महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका समस्त दान, स्थान सिद्ध हो जाता है। श्रद्धा गीता के आचार दर्शन के केन्द्रीय तत्त्वों तप आदि पुरुषार्थ फलयुक्त होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे में से एक है। श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" कहकर गीता में उसके महत्त्व को मुक्ति की ओर नहीं ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जायेगा, क्योंकि स्पष्ट कर दिया है। गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैसी असम्यग्दर्शी होने के कारण वह आसक्त (सराग) दृष्टि वाला होगा और श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही आसक्त या फलाशापूर्ण विचार से परिनिष्पन्न होने के कारण उसके सभी वह बन जाता है।४५ गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर कि यदि दुराचारी कार्य भी फलयुक्त होंगे और फलयुक्त होने से उसके बन्धन के कारण व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो वह शीघ्र ही होंगे। अत: असम्यग्दर्शी व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा धर्मात्मा होकर चिरशांति को प्राप्त हो जाता है, इस कथन में सम्यग्दर्शन जायेगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत या श्रद्धा के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया है।४६ गीता का यह कथन सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित आचारांग के उस कथन से कि 'सम्यग्दर्शी कोई पाप नहीं करता' काफी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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