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________________ जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन परमार्थ और सत्य के सम्बन्ध में जो अनेक भ्रान्त धारणाएँ आती हैं एवं असदाचरण होता है उनका आधार यही मोह है मिथ्यात्व मोह या अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परिणामस्वरूप व्यक्ति की परम मूल्यों के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। वह उन्हें ही परम मूल्य मान लेता है जो कि वस्तुतः परम मूल्य या सर्वोच्च मूल्य नहीं होते हैं। जैन दर्शन में अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द बताते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर द्रव्य सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्र ग्रामनगरादिक - इनको ऐसा समझे कि मेरे है, ये मेरे पूर्व में थे, इनका मैं पहले भी था तथा ये मेरे आगामी होंगे, मैं भी इनका आगामी होऊँगा ऐसा झूठा आत्म विकल्प करता है वह मूढ़ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता है, वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है। १९ जैन दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठ (Subjective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व का अर्थ है- सम्यक् ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान उसमें एकान्तिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है। दूसरे जैन दर्शन में मिथ्यात्व अकेला ही बन्धन का कारण नहीं है वह बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी उसका सर्वस्व नहीं है। मिथ्या दर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से आचरण या चारित्र दूषित होता है। इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है। नैतिक जीवन के लिए मिध्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि दूषित है, ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक आचरण भी सम्यक् या नैतिक नहीं हो सकता। नैतिक जीवन में प्रगति के लिए प्रथम शर्त है- मिथ्यात्व से मुक्त होना । जैन दर्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि का पता नहीं लगाया जा सकता, वह अनादि है, फिर भी वह अनन्त नहीं माना गया है। जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो भव्य जीवों की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है। आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कब से है यह पता नहीं लगाया जा सकता है, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पाई जा सकती है। एक ओर मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिकता का कारण सम्यक्त्व है। नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है और सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक आचरण होता है। बौद्ध दर्शन में अविद्या का स्वरूप बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गयी है। अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है। Jain Education International ४४९ जन्म मरण की परम्परा और दुःख का मूल यही अविद्या है। जिस प्रकार जैन दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती है। यह एक ऐसी सत्ता है जिसको समझ सकना कठिन है। हमें बिना अधिक गहराइयों में उतरे इसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। अविद्या समस्त जीवन की पूर्ववर्ती आवश्यक अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं; क्योंकि जन्म मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता है; लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्व से इन्कार भी नहीं किया जा सकता है। स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है अविद्या का उद्भव कैसे होता है, यह नहीं बताया जा सकता है। अश्वघोष के अनुसार- 'तथता' से ही अविद्या का जन्म होता है। २० डा० राधाकृष्णन् की दृष्टि में बौद्ध दर्शन में अविद्या उस परम सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतधर्म, शून्यता, धर्मधातु एवं तथता कहा गया है, की वह शक्ति है, जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों की श्रृंखला को उत्पन्न करती है । यह यथार्थ सत्ता ही अन्दर विद्यमान निषेधात्मक तत्त्व है हमारी सीमित बुद्धि इसकी तह में इससे अधिक और प्रवेश नहीं कर सकती। २१ सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुसार इन्द्रियानुभूति के विषय इस जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है या परतंत्र एवं सापेक्षित है, इसे यथार्थ मान लेना वहीं अविद्या है दूसरे शब्दों में, अयथार्थ अनेकता को यथार्थ मान लेना यहीं अविद्या का कारण है, इसी में से वैयक्तिक आहं का प्रादुर्भाव होता है और यहीं से तृष्णा का जन्म होता हैं। बौद्ध दर्शन । के अनुसार भी अविद्या और तृष्णा (अनैतिकता) में पारस्पारिक कार्यकारण सम्बन्ध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या उत्पन्न होती है। जिस प्रकार जैन दर्शन में मोह के दो कार्य दर्शन-मोह और चारित्र मोह - हैं उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में अविद्या के दो कार्यज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण हैं । ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और क्लेशावरण की तुलना चारित्र मोह से की जा सकती है। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में माया को अनिर्वचनीय माना गया है उसी प्रकार बौद्धपरम्परा में भी अविद्या को सत् और असत् दोनों ही कोटियों से परे माना गया है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि में नानारूपात्मक जगत् को परमार्थ मान लेना अविद्या है। मैत्रेयनाथ ने अभूतपरिकल्प (अनेकता का शान) की विवेचना करते हुए बताया कि उसे सत् और असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता है वह सत् इसलिए नहीं है क्योंकि परमार्थ में अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है। २२ इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों में अविद्या का स्वरूप बहुत कुछ वेदान्तिक माया के समान बन गया है। समीक्षा बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद और शून्यवाद के सम्प्रदायों में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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