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________________ ४४४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में विस्तार से चर्चा की है। यहाँ इसका उल्लेख मात्र यह बताता है विरह-भक्ति के अनेक गीत लिखे हैं। उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैंकि जैन परम्परा में भक्तिमार्ग का जो विकास है, वह हिन्दू परम्परा ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो, और न चाहूँ कंत । से प्रभावित होकर ही हुआ है। रीझ्यों साहब सैज न परिहरे, भांगे सादि अनन्त ।। जहाँ तक दास, सख्य एवं आत्म-निवेदन रूप भक्तियों के उल्लेख प्रीत सगाई जग मां सह करै, प्रीत सगाई न कोय । का प्रश्न है, अनीश्वरवादी जैन परम्परा में स्वामी-सेवक भाव से प्रभु प्रीत सगाई निरूपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय।। की उपासना स्वीकृत नहीं रही है, क्योंकि उसमें भक्ति का लक्ष्य उस परमात्मदशा की प्राप्ति है जिसमें स्वामी-सेवक का भाव समाप्त हो प्रीतम प्रान पति बिना, प्रिया कैसे जीवै हो । जाता है। फिर भी साधकदशा में परमात्मा के प्रति पूज्य-बुद्धि जैन प्रान-पवन विरहा-दशा, भुअंगनि पीवै हो ।। परम्परा में भी मान्य रही और उस रूप में जैन साधक अपने को परमात्मा सीतल पंखा कुमकुमा, चन्दन कहा लावै हो । का सेवक भी सूचित करता है। जैन भक्ति गीतों में अनेक स्थानों पर अनल न विरहानल यहै, तन ताप बढ़ावै हो।। भक्त अपने को परमात्मा के सेवक के रूप में प्रस्तुत भी करता है। जैन संत आनन्दघन जी लिखते हैं वेदन विरह अथाह है, पानी नव नेजा हो। एक अरज सेवक तणीरे, अवधारो जिनदेव । कोन हबीब तबीब है, टारै करक करेजा हो।। कृपा करी मुझ दीजिए रे, आनन्दघन पद सेव ।। गाल हथेली लगाई कै, सुरसिंधु हमेली हो। - विमल जिनस्तवन अँसुवन नीर बहाय कै, सींच कर बेली हो।। फिर भी वैष्णव भक्ति परम्परा में जो सदैव ही परमात्मा का सेवक बने रहने की उत्कट भावना है, वह जैन परम्परा में नहीं पायी जाती। मिलापी आन मिलावो रे, मेरे अनुभव मीठडे मीत। उसका आदर्श तो स्वयं परमात्मपद को प्राप्त कर लेना है। इसमें सर्वोच्च चातिक पिउ पिउ करै रे, पीउ मिलावे न आन। स्थिति में स्वामी और सेवक का भेद नहीं रह जाता। भक्त सदैव ही जीव पीवन पीउं पीउं करै प्यारे, जीउ निउ आन अयान।। यह प्रार्थना करता है कि भक्त और भगवान के बीच का यह अन्तर इस प्रकार जैन परम्परा में विरह व प्रेम को लेकर अनेक भक्ति कैसे समाप्त हो? सन्त आनन्दघन जी लिखते हैं गीतों की रचनाएँ हुई हैं। उसमें शुद्ध चैतन्य आत्मा को पति तथा पद्यप्रभु जिन तुझ मुज आंतरू रे, किम भांजै भगवंत। आत्मा के समता रूप स्वाभाविक दशा को पत्नी तथा आत्मा की ही कर्म विपाके कारण जोइने कोई कहे मतिमंत ।। वैभाविक दशा को सौत के रूप में चित्रित कर आध्यात्मिक प्रेम का अन्त में उस अन्तर को समाप्त होने की पूर्ण आस्था रखते हुए अनूठा वर्णन किया गया है। भक्त कहता है१९ - नारद भक्तिसूत्र में प्रेम स्वरूपा भक्ति के निम्न ग्यारह प्रकारों का तुझ मुझ अन्तर अन्ते भांजसे बाजस्यै मंगल तूर । उल्लेख हुआ हैजैन भक्ति का आदर्श वाक्य है १. गुणमहात्म्यासक्ति, २. रूपासक्ति, ३. पूजासक्ति, ४. स्मरणावन्दे तद् गुणलब्धये -तत्त्वार्थसूत्र-मङ्गलाचरण। सक्ति ५. दास्यासक्ति, ६. सख्यासक्ति, ७. कान्तासक्ति, ८. वात्सल्याइस प्रकार जैनधर्म में भक्ति का प्रयोजन परमात्मदशा को प्राप्त सक्ति, ९. आत्मनिवेदनासक्ति, १०. तन्मयतासक्ति, ११. परमविरहासक्ति। कर स्वामी-सेवक-भाव समाप्त करना ही रहा है। इनमें भी रूपासक्ति, स्मरणासक्ति, गुणमहात्मयासक्ति और इस प्रकार सख्यभाव से भक्ति के उल्लेख भी जैन परम्परा में पूजासक्ति तो स्तवन, वंदन एवं पूजन के रूप में जैन परम्परा में भी मिल जाते हैं। फिर भी दोनों परम्परा में जो मौलिक अन्तर है उसे पाई जाती हैं। शेष दास सख्य, कान्ता, वात्सल्य आदि को भी परवर्ती लक्ष्य में रखना ही होगा। जैन परमपरा में परमात्मा कोई एक व्यक्ति जैनाचार्यों ने अपनी परम्परागत दार्शनिक मान्यताओं के अनुरूप बनाकर विशेष नहीं है जिससे सख्यभाव जोड़ा जा सके। अपितु प्रत्येक आत्मा प्रस्तुत किया है। का अपना शुद्ध स्वरूप ही उसका सखा या मित्र है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में भक्ति की इसी प्रकार वैष्णव परम्परा में परमात्मा को पति मानकर भक्ति अवधारणा स्तवन, वंदन, विनय, पूजा और सेवा इन-सभी पक्षों को की परम्परा भी पायी जाती है। प्रेम और विरह के रूप में भक्ति गीतों समाहित किये हुए है। सेवा के क्षेत्र में भक्ति के दो रूप रहे हैंकी परम्परा अति प्राचीन है। यद्यपि जैन परम्परा की साधना का मुख्य एक तो स्वयं आराध्य आदि की प्रतिमा की सेवा करना, दूसरे गीता उद्देश्य तो राग-भाव से ऊपर उठना ही रहा है, फिर भी परमात्मा के के युग से ही संसार के सभी प्राणियों को प्रभु का प्रतिनिधि मानकर प्रति अनन्य प्रेम का प्रकटन उसमें भी हुआ है। यद्यपि मेरी दृष्टि में उनकी सेवा को भी भक्ति में स्थान दिया गया। जैन परम्परा में भी यह सब वैष्णव भक्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव रहा है। समयसुन्दर, निशीथचूर्णि (सातवीं शती) में यह प्रश्न उठा है कि एक व्यक्ति जो आनन्दघन, यशोविजय, देवचन्द्र आदि जैन कवियों ने परमात्मा को प्रभु का नाम स्मरण करता है, दूसरा जो ग्लान वृद्ध व रोगियों की पति मानकर अनेक भक्ति गीतों की रचना की है। आनन्दघन ने सुश्रुषा करता है, उनमें श्रेष्ठ है? इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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