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________________ जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा ४२९ का नहीं। वह आस्रवों से रहित एवं आत्मतुष्ट हो उस पीड़ा को समभाव के समय भय से संत्रस्त होता है और हारने वाले धूर्त जुआरी की से सहन करे। ग्रन्थियों अर्थात् अन्तर-बाह्य परिग्रह से रहित मृत्यु के तरह शोक करता अकाम-मरण को अर्थात् निप्रयोजन मरण को प्राप्त अवसर पर पारङ्गत भिक्षु के इस समाधिमरण को संयमी जीवन के होता है, जबकि सकाम-मरण पण्डितों को प्राप्त होता है। संयत जितेन्द्रिय लिए अधिक श्रेष्ठ माना गया है। पुण्यात्माओं को ही अति प्रसन्न अर्थात् निराकुल एवं आधातरहित यह भक्तप्रत्याख्यान के अतिरिक्त समाधिमरण का एक रूप इङ्गितिमरण मरण प्राप्त होता है। ऐसा मरण न तो सभी भिक्षुओं को मिलता है, बताया है। इसमें साधक दूसरों से सेवा लेने का त्रिविध रूप से परित्याग न सभी गृहस्थों को। जो भिक्षु हिंसा आदि से निवृत्त होकर संयम कर देता है, ऐसा भिक्षु हरियाली पर नहीं सोए अपितु जीवों से रहित का अभ्यास करते हैं, उन्हें ही ऐसा सकाम-मरण प्राप्त होता है। स्थण्डिल भूमि पर ही सोए। वह अनाहार भिक्षु देह आदि के प्रति उत्तराध्ययनसूत्र यह स्पष्ट निर्देश देता है कि मेधावी साधक ममत्व का विसर्जन करके परीषहों से आक्रान्त होने पर उन्हें समभाव बालमरण व पण्डितमरण की तुलना करके सकाम-मरण को स्वीकार से सहन करे। इन्द्रियों के ग्लान हो जाने पर वह मुनि समितिपूर्वक कर मरण काल में क्षमा और दया धर्म से युक्त हो, तथाभूत आत्मभाव ही अपने हाथ-पैर आदि का संकोच-विस्तार करे, क्योंकि जो अचल में मरण करे। जब मरण काल उपस्थित हो तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या एवं समभाव से युक्त होता है वह निन्दित नहीं होता। वह जब लेटे-लेटे स्वीकार की थी, उसी श्रद्धा व शान्त भाव से शरीर के भेद अर्थात् या बैठे-बैठे थक जाय तो शरीर के संधारण के लिए थोड़ा गमनागमन देहपात की प्रतिज्ञा करे। मृत्यु के समय आने पर तीन प्रकार के एक करे या हाथ-पैरों को हिलाए, किन्तु सम्भव हो तो अचेतनवत् निश्चेष्ट से एक श्रेष्ठ समाधिमरणों से शरीर का परित्याग करे। हो जाये। इस अद्वितीय मरण पर आसीन व्यक्ति उन काष्ठ-स्तम्भों इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र के पञ्चम अध्याय या फलक आदि का सहारा न ले, जो दीमक आदि से युक्त हो अथवा में भी उन्हीं तीनों प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है जिसकी चर्चा वर्जित हो। जो साधक इङ्गितिमरण से भी उच्चतर प्रायोपगमन या हम आचाराङ्गसूत्र के सम्बन्ध में कर चुके हैं। फिर भी ज्ञातव्य है कि पादोपगमन संथारे को ग्रहण करता है, वह सभी अङ्गों का निरोध करके उत्तराध्ययनसूत्र का यह विवरण समाधिमरण के हेतु प्रेरणा प्रदान करने अपने स्थान से चलित नहीं होता है-यह प्रायोपगमन, भक्त प्रत्याख्यान की ही दृष्टि से है। दूसरे शब्दों में यह मात्र उपदेशात्मक विवरण है। और इङ्गितिमरण की अपेक्षा उत्तम स्थान है। ऐसा भिक्षु जीव-जन्तु इसमें किन परिस्थतियों में समाधिमरण ग्रहण किया जाय इसकी चर्चा से रहित भूमि को देखकर वहाँ निश्चेष्ट होकर रहे और वहाँ अपने शरीर नहीं है। मात्र यत्र-तत्र समाधिमरण के कुछ सङ्केत ही हैं। उत्तराध्ययनसूत्र को स्थापित कर यह विचार करे कि जब शरीर ही मेरा नहीं है तो में समाधिमरण या संलेखना के काल आदि के सम्बन्ध में और उसकी फिर मुझे परीषह या पीड़ा कैसी? वह संसार के सभी भोगों को नश्वर प्रक्रिया के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह उसके ३६वें अध्याय में जानकर, उनमें आसक्त न हो। देवों द्वारा निमन्त्रित होने पर वह देव इस प्रकार से वर्णित हैमाया पर श्रद्धा न करे। सभी भोगों में अमर्छित होकर मृत्य के अवसर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम का पारगामी वह तितिक्षा को ही परम हितकर जानकर निर्ममत्वभाव से आत्मा की संलेखना के विकारों को क्षीण करे। उत्कृष्ट संलेखना को अन्यतम साध्य माने। बारह वर्ष की होती है, मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास की होती है। प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का नि!हण-त्याग उत्तराध्ययनसूत्र और समाधिमरण करें, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के तप करे, फिर दो वर्षों तक इस प्रकार हम देखते हैं कि आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण के एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करें। प्रकार, उसकी प्रक्रिया तथा उसे किन स्थितियों में ग्रहण किया जा भोजन के दिन आचाम्ल करे। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा है। आचाराङ्गसूत्र के पश्चात् प्राचीन महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चौला आदि) तप न करे। स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में भी समाधिमरण का विवरण उसके बाद छह महीने तक विकृष्ट तप करे। इस पूरे वर्ष में परिपित उसके ५वें एवं ३६वें अध्याय में उपलब्ध होता है। उसके पाँचवें अध्याय (पारणों के दिन) आचाम्ल करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि में सर्वप्रथम मृत्यु के दो रूपों की चर्चा है- १. अकाम-मरण और सहित अर्थात् निरन्तर, आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास २. सकाम-मरण। उसमें यह बताया गया है कि अकाम-मरण बार-बार का आहार से तप अर्थात् अनशन करे। कादपी, अभियोगी, किल्बिषिकी, होता है- जबकि सकाम-मरण एक ही बार होता है। ज्ञातव्य है कि मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देने वाली हैं। ये मृत्यु के समय यहाँ अकाम-करण का तात्पर्य कामना से रहित मरण न होकर आत्म में संयम की विराधना करती हैं। अत: जो मरते समय मिथ्या-दर्शन पुरुषार्थ से रहित निरुद्देश्य या निष्प्रयोजनपूर्वक मरण से है। इसी प्रकार में अनुरक्त है, निदान से युक्त है और हिंसक है, उसे बोधि बहुत सकाम-मरण का तात्पर्य पुरुषार्थ या साधना से युक्त सोद्देश्यमरण या दुर्लभ है। जो सम्यग्दर्शन में अनुरक्त है, निदान से रहित है, शुक्ल-लेश्या मुक्ति के प्रयोजनपूर्वक मरण से है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार में अवगाढ़- प्रविष्ट है, उसे बोधि सुलभ है। जो जिन वचन में अनुरक्त अकाम-करण करने वाला व्यक्ति संसार में आसक्त होकर अनाचार का है, जिन वचनों का भावपूर्वक आचरण करता है, वह निर्मल और सेवन करता है और काम-भोगों के पीछे भागता है, ऐसा व्यक्ति मृत्यु रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीत संसारी (परिमित संसार वाला) होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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