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________________ समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन ४२३ के लिए है न मरण के लिए है। वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र नहीं कहें, निराश होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ की सिद्धि के लिए है। यदि जीवन से ज्ञानादि आध्यात्मिक गुण की देना यह एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन-द्रोह भी कह सकते सिद्धि एवं शुद्ध वृद्धि हो तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है लेकिन जब मनुष्य सोचता चाहिए, किन्तु यदि जीवन से भी ज्ञानादि की अभिष्ट सिद्धि नहीं होती है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता हो तो वह मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है। नहीं रही तब वह आत्म-साधना के अन्तिम रूप के तौर पर अगर शरीर छोड़ दे तो वह उसका हक है। मैं स्वयं व्यक्तिश: इस अधिकार समाधिमरण का मूल्यांकन का समर्थन करता हूँ।२३ स्वेच्छामरण के सम्बन्ध में पहला प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य समकालीन विचारकों में आदरणीय धर्मानन्द कौसम्बी और महात्मा को प्राणान्त करने का नैतिक अधिकार है? पं० सुखलाल जी ने जैन गांधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त करने के अधिकार का समर्थन नैतिक द्रष्टि से इन प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसका संक्षिप्त रूप यह है दृष्टि से किया था। महात्माजी का कथन है कि जब मनुष्य पापाचार कि जैन धर्म सामान्य स्थितियों में चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या के बिना अपने को प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है लेकिन जब देह और आध्यात्मिक पाप से नहीं बचा सकता तब होने वाले पाप से बचने के लिए उसे सद्गुण इनमें से किसी एक की पसन्दगी करने का विषम समय आ आत्महत्या करने का अधिकार है।२४ कौसम्बीजी ने भी अपनी पुस्तक गया हो तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति ‘पार्श्वनाथ का चार्तुयाम धर्म' में स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और को बचाया जा सकता है, जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देह उसकी भूमिका में पं० सुखलाल जी ने 'उन्होंने अपनी स्वेच्छा-मरण नाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है।२१ जब तक की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था' यह उद्धृत किया है। देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके तो तब तक काका कालेलकर स्वेच्छामरण को महत्त्वपूर्ण मानते हुए जैन दोनों की ही रक्षा कर्तव्य है पर जब एक की ही पसन्दगी करने का परम्परा के समान ही कहते हैं कि जब तक यह शरीर मुक्ति का साधन सवाल आये तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसन्द करेंगे और हो सकता है तब तक अपरिहार्य हिंसा को सहन करके भी इसे जिलाना आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारी चाहिए। जब हम यह देखें कि आत्मा के अपने विकास के प्रयत्न इससे उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं-दैहिक और आध्यात्मिक। में शरीर बाधा रूप ही होता है तब हमें उसे छोड़ना चाहिए। जो किसी आध्यात्मिक जीवन जीने वालों के लिए प्राणान्त या अनशन की इजाजत हालत में जीना चाहता है उसकी निष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो है, पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिए नहीं। भयंकर दुष्कर जीवन से उब कर अथवा केवल मरने के लिए मरना चाहता है, तो आदि तंगी में देहरक्षा के निमित्त संयम से पतित होने का अवसर उसमें भी विकृत शरीर-निष्ठा है। जो मरण से डरता है और जो मरण आ जाये या अनिवार्य रूप से मरण लाने वाली बीमरियों के कारण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य नहीं जानते। व्यापक जीवन खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो, फिर संयम और में जीना और मरना दोनों का अन्तर्भाव होता है, उन्मेष और निमेष सद्गुण की रक्षा सम्भव न हो तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे दोनों क्रियाएँ मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी होती है२६॥ या स्वेच्छामरण का विधान है. इस प्रकार जैन दर्शन मात्र सद्गुणों भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही की रक्षा के निमित्त प्राणान्त करने की अनुमति देता है, अन्य स्थितियों नहीं वरन् उसमें जीवन की कला के साथ मरण की कला पर भी विचार में नहीं। यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया किया गया है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से किस प्रकार जीवन जीना जाता है तो वह अनैतिक नहीं हो सकता। नैतिकता की रक्षा के लिए चाहिए यही महत्त्वपूर्ण नहीं है वरन् किस प्रकार मरना चाहिए यह किया गया देह-विसर्जन अनैतिक कैसे होगा। भी मूल्यावान है। मृत्यु की कला जीवन की कला से भी महत्त्वपूर्ण जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता में भी उपलब्ध है, आदर्श मृत्यु ही नैतिक जीवन की कसौटी है। जीवन का जीना है। गीता कहती है कि यदि जीवित रहकर (आध्यात्मिक सद्गुणों के तो विद्यार्थी के सूत्रकालीन अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु परीक्षा विनाश के कारण) अपकीर्ति की सम्भावना हो तो उस जीवन से मरण का अवसर है। हम जीवन की कमाई का अन्तिम सौदा मृत्यु के समय ही श्रेष्ठ है। करते हैं। यहाँ चूके तो फिर पछताना होता है और इसी अपेक्षा से आदरणीय काका कालेलकर लिखते है कि मृत्यु शिकारी के कहा जा सकता है कि जीवन की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला समान हमारे पीछे पड़े और हम बचने के लिए भागते जायें, यह दृश्य अधिक मूल्यवान है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु का मनुष्य को शोभा नहीं देता। जीवन का प्रयोजन समाप्त हुआ, ऐसा अवसर ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी जीवन देखते ही मृत्यु को आदरणीय अतिथि समझ कर उसे आमन्त्रण देना, का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छा-स्वीकृत मरण के द्वारा होती है वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है (१८/५-६)। जैन परम्परा जीवन को कृतार्थ करना, यह एक सुन्दर आदर्श है। आत्महत्या को में खन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना नैतिक दृष्टि से उचित मानते हुए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या करनेवाला महान् साधक जिसने आपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने Jain 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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