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________________ ४१८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है, मन अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह को 'परमार्थ के अर्थ में ग्रहण किया। वस्तुतः राग का प्रहाण हो जाने अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा पर 'मेरा' तो शेष रहता ही नहीं है, जो कुछ रहता है वह मात्र परमार्थ है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। होता है। चाहे उसे आत्मा कहें, चाहे उसे शून्यता, विज्ञान या परमार्थ 'भिक्षुओं! रूप अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दु:ख कहें, अन्तर शब्दों में हो सकता है, मूल भावना में नहीं। है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थत: प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। गीता में आत्म-अनात्म विवेक (भेद विज्ञान) ____ भिक्षुओं! शब्द, अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है जो गीता का आचार दर्शन अनासक्त दृष्टि से उदय और अहं के दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न विगलन को साधना का महत्त्वपूर्ण तथ्य मानता है; लेकिन यह कैसे मेरी आत्मा है, इसे यथार्थत: प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। हो? डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में हमें उद्धार की उतनी आवश्यकता ___भिक्षुओं! इसे जानकर पण्डित, आर्यश्रावक चक्षु में वैराग्य करता नहीं है जितनी अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की, लेकिन है, श्रोत्र में, प्राण में, जिह्वा में, काया में, मन में वैराग्य करता है। अपनी वास्तविक प्रकृति को कैसे पहचाना जाए? इसके साधन के वैराग्य करने से, रागरहित होने से विमुक्त हो जाता है, विमुक्त होने रूप में गीता भी भेद-विज्ञान को स्वीकार करती है। गीता का तेरहवाँ से विमुक्त हो गया ऐसा ज्ञात होता है। जाति क्षीण हुई, ब्रह्मचर्य पूरा अध्याय हमें इसी भेद-विज्ञान को सिखाता है, जिसे गीताकार की भाषा हो गया, जो करना था सो कर लिया, पुन: जन्म नहीं होगा यह जान में 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान' कहा गया है। गीताकार ज्ञान की व्याख्या करते लेता है। हुए कहता है कि 'क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को यथार्थ रूप में जानने वाला भिक्षुओं! इसे जानकर पण्डित आर्यश्रावक अतीत के रूप में ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। गीता के अनुसार शरीर क्षेत्र है और भी अनपेक्ष होता है, अनागत रूप आदि का अभिनन्दन नहीं करता इसको जानने वाली ज्ञायक स्वभाव युक्त आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है। वस्तुतः और वर्तमान रूप आदि के निर्वेद, विराग और निरोध के लिए यत्नशील समस्त जगत् जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है; और परमात्मस्वरूप होता है। विशुद्ध आत्मतत्त्व ही ज्ञाता है, क्षेत्रज्ञ है। इन्हें क्रमश: प्रकृति और इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों विचारणाएँ भेदाभ्यास या अनात्म पुरुष भी कहा जाता है। गीता के अनुसार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति भावना के चिन्तन में एक-दूसरे के अत्यन्त समीप आ जाती हैं। बौद्ध और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का विचारणा में समस्त जागतिक उपादानों को 'अनात्म' सिद्ध करने का बोध कर लेना ही सच्चा ज्ञान है। गीता में सांख्य शब्द का ज्ञान के आधार है-उनकी अनित्यता एवं तज्जनित दु:खमयता। जैन विचारणा अर्थ में प्रयोग हुआ है और उसकी व्याख्या में आचार्य शङ्कर ने यही ने अपने भेदाभ्यास की साधना में जागतिक उपादानों में अन्यत्व भावना दृष्टि अपनायी है। वे लिखते हैं कि 'यह त्रिगुणात्मक जगत् या प्रकृति का आधार उनकी संयोगिकता को माना है, क्योंकि यदि सभी संयोगजन्य ज्ञान के विषय हैं, मैं उनसे भिन्न हूँ (क्योंकि ज्ञाता और ज्ञेय, दृष्टि हैं तो निश्चय ही संयोगकालिक होगा और इस आधार पर वह अनित्य और दृश्य एक नहीं हो सकते), उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षी भी होगा। मात्र हूँ, उनसे विलक्षण हूँ, इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करना बुद्ध और महावीर दोनों ने ज्ञान के समस्त विषयों में 'स्व' या ही ज्ञान है। ज्ञायक स्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध 'आत्मा' का अभाव पाया और उनमें ममत्व-बुद्धि के निषेध की बात के लिए जगत् के जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता कही, लेकिन बुद्ध ने साधनात्मक जीवन की दृष्टि पर विश्रान्ति लेना है वे हैं- पञ्च महाभूत, देह अहंभाव, विषययुक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति, उचित समझा, उन्होंने साधक को यही बताया कि तुझे यह जान लेना पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, पाँचों इन्द्रियों के विषय-ईर्ष्या, है कि 'पर' या अनात्म क्या है, 'स्व' को जानने का प्रयास करना द्वेष, सुख, दुःख, सुख-दुःखादि भावों की चेतना आदि। ये सभी क्षेत्र ही व्यर्थ है। इस प्रकार बुद्ध ने मात्र निषेधात्मक रूप में अनात्म का हैं अर्थात् ज्ञान के विषय हैं और इसलिए ज्ञायक आत्मा इनसे भिन्न प्रतिबोध कराया, क्योकि आत्मा के प्रत्यक्ष में उन्हें अहं, ममत्व या है। गीता यह मानती है कि 'आत्म का अनात्म से अपनी भिन्नता आसक्ति की ध्वनि प्रतीत हुई। जबकि महावीर की परम्परा ने अनात्म का बोध नहीं होना ही बन्धन का कारण है।' जब वह पुरुष प्रकृति के निराकरण के साथ आत्म की स्वीकृति भी आवश्यक मानी। पर से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक पदार्थों को प्रकृति में स्थित होकर भोगता या अनात्म का परित्याग और स्व या आत्म का ग्रहण यह दोनों प्रत्यय है तो अनात्म प्रकृति में आत्मबुद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी-बुरी जैन विचारणा में स्वीकृत रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्द सयमसार' में लिखते योनियों में जन्म लेता है'।१० दूसरे शब्दों में अनात्म में आत्मबुद्धि हैं कि इस शुद्धात्मा को जिस तरह पहले प्रज्ञा से भिन्न किया था, करके जब उसका भोग किया जाता है तो उस आत्मबुद्धि के कारण उसी तरह प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना। लेकिन जैन और बौद्ध परम्पराओं ही आत्मा बन्धन में आ जाती है। वस्तत: इस शरीर में स्थित होती का यह विवाद इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि बौद्ध परम्परा हुई भी आत्मा इससे भिन्न ही है, यही परमात्मा कही जाती है।११ ने आत्म शब्द से 'मेरा' अर्थ ग्रहण किया जबकि जैन परम्परा ने आत्मा पर परमात्मस्वरूप आत्मा शरीर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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