SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ भी हुआ है। वैदिक परम्परा में प्रारम्भ से ही कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग की धाराएँ अलग-अलग रूप में प्रवाहित होती रही हैं। भागवत सम्प्रदाय के उदय के साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । इस प्रकार वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का ज्ञानमार्ग और भागवत सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ-साथ ही योग सम्प्रदाय का ध्यानमार्ग सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक्ष मार्ग समझे जाते रहे हैं। सम्भवतः गीता एक ऐसी रचना अवश्य है जो इन सभी साधना विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया। यही कारण था कि परवर्ती टीकाकारों ने अपने पूर्व संस्कारों के कारण गीता को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादन बताने का प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मार्गों को गौण बताया। शङ्कर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना। लेकिन जैन विचारकों ने इस त्रिविध साधना पथ को समवेत रूप में ही मोक्ष का कारण माना और यह बताया कि ये तीनों एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष को प्राप्त करा सकते हैं। उसने तीनों को समान माना और उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं किया। हमें इस भ्रांति से बचना होगा कि श्रद्धा, ज्ञान और आचरण ये स्वतन्त्र रूप में नैतिक पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं। मानवीय व्यक्तित्व और नैतिक साध्य एक पूर्णता है और उसे समवेत रूप में हो पाया जा सकता है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ बौद्ध परम्परा और जैन परम्परा दोनों ही एकाङ्गी दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। बौद्ध परम्परा में शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा प्रज्ञा, श्रद्धा और वीर्य को समवेत रूप में ही निर्वाण का कारण माना गया है। इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्पराएँ न केवल अपने साधना मार्ग के प्रतिपादन में, वरन् साधन त्रय के बलाबल के विषय में भी समान दृष्टिकोण रखती हैं। वस्तुतः नैतिक साध्य का स्वरूप और मानवी प्रकृति, दोनों ही यह बताते हैं कि त्रिविध साधना मार्ग अपने समवेत रूप में ही नैतिक पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है यहाँ इस त्रिविध साधना पथ का मानवीय प्रकृति और नैतिक साध्य से क्या सम्बन्ध है, इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा ? मानवीय प्रकृति और त्रिविध साधना पथ - मानवीय चेतना के तीन कार्य है- (१) जानना, (२) अनुभव करना और (३) संकल्प करना । हमारी चेतना का ज्ञानात्मक पक्ष न सन्दर्भ : १. तत्त्वार्थसूत्र, संपा० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १ / १ | उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय सैलाना, वीर सं० २४७८, २८/२० ३. साइकोलॉजी एण्ड मॉरल्स, जे०ए० हैडफील्ड, १९३६.५० १८०१ २. Jain Education International केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना चाहता है। ज्ञानात्मक चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती है। अतः जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक चेतना सत्य को उपलब्ध कर सके उसे ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है। सम्यग्ज्ञान चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जाता है चेतना का दूसरा पक्ष अनुभूति के रूप में आनन्द की खोज करता है। सम्यग्दर्शन चेतना में राग-द्वेषात्मक जो तनाव हैं, उन्हें समाप्त कर उसे आनन्द प्रदान करता है। चेतना का तीसरा सङ्कल्पात्मक पक्ष शक्ति की उपलब्धि और कल्याण की क्रियान्विति चाहता है। सम्यग्वारित्र संकल्प को कल्याण के मार्ग में नियोजित कर शिव की उपलब्धि कराता है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र का यह त्रिविध साधना-पथ चेतना के तीनों पक्षों को सही दिशा में निर्देशित कर उनके वांछित लक्ष्य सत्, सुन्दर और शिव अथवा अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति की उपलब्धि कराता है। वस्तुतः जीवन के साध्य को उपलब्ध करा देना ही इस त्रिविध साधना पथ का कार्य है। जीवन का साध्य अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान, अक्षय आनन्द और अनन्त शक्ति को उपलब्धि है, जिसे त्रिविध साधना पथ के तीनों अङ्गों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सम्यग्ज्ञान की दिशा में नियोजित कर ज्ञान की पूर्णता को, चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यग्दर्शन में नियोजित कर अक्षय आनन्द की और चेतना के सङ्कल्पात्मक पक्ष को सम्यक्चारित्र में नियोजित कर अनन्त शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है वस्तुतः जैन आचार दर्शन में साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों में अभेद माना गया है। ज्ञान, अनुभूति और सङ्कल्पमय चेतना साधक है और यही चेतना के तीनों पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होने पर साधना-पथ कहलाते हैं और इन तीनों पक्षों की पूर्णता ही साध्य है। साधक, साध्य और साधना पथ भिन्न भिन्न नहीं, वरन चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ है। उनमें अभेद माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में और आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस अभेद को अत्यन्त मार्मिक शब्दों में स्पष्ट किया है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं कि यह आत्मा ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।" आचार्य हेमचन्द्र इसी अभेद को स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र में कहते हैं कि आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है, क्योंकि आत्मा इसी रूप में शरीर में स्थित है। ३३ आचार्य ने यह कहकर कि आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में शरीर में स्थित है, मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति को ही स्पष्ट किया है। ज्ञान, चेतना और सङ्कल्प तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य बन जाते हैं। इस प्रकार जैन आचार-दर्शन में साधक, साधना-पथ और साध्य में अभेद हैं। उत्तराध्यनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, २८/३० । वही, २८/३० । ५. ६. तत्त्वार्थसूत्र, संपा० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १/१० दर्शनपाहुड, (अष्टप्राभृत), आचार्य कुन्दकुन्द, प्रका० परमश्रुत ४. ७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy