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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व है ।' यह बब्बा का उत्तर था । बब्बा की बातों से मर्माहत हृदय को एक झटका सा लगा । किसी उत्तरदायित्वपूर्ण प्रतिष्ठित पद पर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित कालावधि के पश्चात् सेवा-मुक्त हो कर अपने घर चला जाता है। यह तो नितान्त सहज और स्वाभाविक है, परन्तु डॉ० सागरमल जैन के व्यक्तिव में कुछ ऐसी विलक्षण विशेषतायें हैं जिनके कारण उनका अपने घर चला जाना मुझे अखर गया । सोचने लगा, पता नहीं जीवन में अब उनसे फिर कभी भेंट भी होगी या नहीं । विगत सत्रह वर्षों से मेरा उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध था । उनके निश्छल-मधुर व्यवहार, विनम्र पांडित्य, उन्मुक्त चिन्तन और स्निग्ध आतिथ्य से मैं अनेक बार गदगद् हो गया था । मैं एक अति आवश्यक कार्य से वाराणसी गया था, परन्तु उनका सहज स्नेह व्यस्तता के क्षणों में भी मुझे पार्श्वनाथ विद्यापीठ तक खींच ले गया था । उदास मन अतीत की स्मृतियों में डूब गया । __ आज लगभग दो सप्ताहों के पश्चात् उनके सम्बन्ध में कुछ लिखने बैठा हूँ तो एक कर्मठ, उदार, व्यवहार विनीत, दुरभिग्रह शून्य, अनवरत-साधनारत, विद्याव्यसनी एवं प्रज्ञाप्रोज्ज्वल भास्वर व्यक्तिव मानस-चक्षुओं में तैर रहा है। मैंने संस्थान में रह कर डॉ० सागरमल जैन को बड़ी निकटता से देखा है । कभी किसी की निन्दा उनके मुँह से नहीं सुनी, किसी मत के मान्य ग्रन्थ की कटु आलोचना करते उन्हें नहीं देखा,दुराग्रह की गन्ध भी उनमें नहीं है, अतिथि-सत्कार उनका प्रकृतिसिद्ध गुण है और अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं गया है। आजकल प्रायः शोध-कार्यों के निदेशक शोध-छात्रों की कोई सहायता नहीं करते, केवल औपचारिकता का निर्वाह करते हैं और उन्हें अपने व्यक्तिगत कार्यों में उलझायें रहते हैं, परन्तु डॉक्टर साहब को मैंने घंटों शोधार्थियों के साथ बैठ कर परिश्रमपूर्वक उनकी कठिनाइयों का निवारण करते देखा है । अपने कार्यकाल का एक क्षण भी उन्होंने व्यर्थ नहीं बिताया । आवश्यक फाइलों का अवलोकन, लेखन, अध्ययन, शोध और विद्यापीठ की भावी योजनाओं का कार्यान्वयन ही उनकी दिनचर्या के अभिन्न अंग थे । आज अपने स्मृति-पटल को कुरेद रहा हूँ। उसकी एक -एक पर्त खुलती जा रही है। उन दिनों डॉ० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान (पार्श्वनाथ विद्यापीठ का पुराना नाम) में नहीं आये थे । 'वज्जालग्ग की कुछ गाथाओं के अर्थ पर पुनर्विचार' शीर्षक पर मेरा लम्बा लेख 'श्रमण' (संस्थान की शोध-पत्रिका) में कई महीनों से लगातार छप रहा था, जिसमें डॉ० पटवर्धन के द्वारा 'अस्पष्ट'घोषित की गई प्राकृत गाथाओं के अर्थ-निरूपण का प्रयास किया गया था । तब डॉ० हरिहर सिंह सम्पादक थे और निदेशक का पद रिक्त ही पड़ा था । अचानक दिसम्बर १९७९ के 'श्रमण' में निदेशक-पद पर डॉ० सागरमल जैन की नियुक्ति का समाचार पढ़ा तो उन से एक बार मिलने की इच्छा हुई । तभी जनवरी के मध्य में अप्रत्याशित रूप से नितान्त अपरिचित हाथों का लिखा हुआ एक पत्र मिला । लेखक का नाम था डॉ० सागरमल जैन । मैं उत्सुकतापूर्वक पत्र पढ़ने लगा : आदरणीय पाठक जी, 'श्रमण' में प्रकाशित और आप के द्वारा लिखित 'वज्जालग्ग की गाथाओं के अर्थ पर पुनर्विचार' शीषर्क लेख पढ़ कर आप की प्रतिभा और पाण्डित्य से मैं बहुत प्रभावित हूं । मैं चाहता हूँ कि आप 'वज्जालग्ग' की कुछ गाथाओं के अर्थ तक ही अपने को सीमित न रखें, यह तो एक अधूरा कार्य है। यदि आप सम्पूर्ण वज्जालग्ग का हिन्दी में अनुवाद करने का कष्ट उठायें तो प्राकृत साहित्य की बहुत बड़ी सेवा होगी । मैं संस्थान की ओर से उस के प्रकाशन की पूरी व्यवस्था करूँगा। आशा है, आप मेरा यह अनुरोध अवश्य स्वीकार करेंगे ........ आपका सागरमल जैन यही वह प्रथम पत्र है जिसके माध्यम से मैं डॉ० सागरमल जैन के सम्पर्क में आया । उस समय मेरा एक मात्र पुत्र लम्बी सांघातिक बीमारी से पीड़ित होकर शय्या पर पड़ा था, और कुछ दिनों के पश्चात् उसका निधन भी हो गया। मेरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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