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________________ ३९६ E नहीं है, वरन् अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णनीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं वरन चेतना का अपने मूल (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने ४७ तात्पर्य उसके अस्तित्व से न होकर उसका स्वाभाविक शुद्ध अदृश्य, अव्यक्त में चला जाना है, जिसमें कि वह अपने दृश्य प्रकटन के पूर्व रही हुई थी। बौद्ध दार्शनिक संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है। मिलिन्दप्रश्न के अनुसार भी निर्वाण अस्ति धर्म (अत्यिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है, उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है, इसी प्रकार निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्त अभावात्मकता सिद्ध नहीं होती। आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ (प्राप्नोति) करता है। वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मक रूप में इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करना भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होता है। निर्वाण की अनिर्वचनीयता - निर्वाण की अनिर्वचनीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है- "भिक्षुओं! न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ, न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ वह न तो कहीं ठहरता है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है, यही दुःखों का अन्त है। *" भिक्षुओं! अनन्त४९ का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं । ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं है।५° जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं। वहाँ चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणाश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है । ५१ उदान का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, न चन्द्र सूर्य प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने से पुन: इस संसार में आया नहीं जाता वही मेरा ( आत्मा का) परम धाम (स्वस्थान) है।” बौद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन का निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं (१) निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो तृतीय आर्य सत्य कैसे होता? क्योंकि अभाव आर्य सत् का आलम्बन नहीं हो सकता। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ दृष्टि कहा है। (२) तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत् नहीं है तो उसके उपदेश का क्या मूल होगा? (३) यदि निर्वाण मात्र निरोध या अभाव है तो उच्छेद-दृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेद- दृष्टि को मिथ्या Jain Education International (४) महायान की धर्मकाय की धारणा और उसकी निर्वाण से एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलयविज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक व्याख्या के विपरीत पड़ते हैं। अतः निर्वाण का तात्त्विक स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है उसे अभाव या निरोध कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है। लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, जिस प्रकार रोग का अभाव, अभाव होते हुए भी सदभूत है, उसे आरोग्य कहते हैं, उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सदभूत है उसे सुख कहा जाता है। दूसरे उसे अभाव इसलिए भी कहा जाता है कि साधक में शाश्ववतवाद की मिध्यादृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता, इस दृष्टिकोण के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग तथा अहं का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं या ममत्व की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता। निर्वाण की अभावात्मक कल्पना 'अनत्त' शब्द का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है। बौद्ध दर्शन में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई नहीं है, अनात्म का उपदेश आसक्ति प्रहाण के लिए, तृष्णा के क्षय के लिए है। निर्वाण 'तत्त्व' का अभाव नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्त्व का नहीं, अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना कहा जा सके। सभी अनात्म है। इस शिक्षा का सच्चा अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है स्व पर में अवस्थित होता है, आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है। लेकिन यही आत्मदृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एवं तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है, वही राग है; और जो राग है वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपनापन (अता) भी नहीं होता बौद्ध निर्वाण की अभावात्मकता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है, तत्व अभाव नहीं है। वस्तुतः तत्त्व लक्षण की दृष्टि से निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र वासनात्मक पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता है अतः प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्षदत की वह मान्यता कि बौद्ध निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की मूल विचारदृष्टि के निकट ही है। यद्यपि बौद्ध निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है, फिर भी भावात्मक भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिए प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य है जबकि निर्वाण तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होती है कि उसके लिए किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति को आवश्यक नहीं बढ़ा सकता । अतः अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक विवेचन शैली ने निर्वाण की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। वस्तुतः निर्वाण अनिर्वचनीय है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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