SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप ___ होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दशा में अनास्त्रव विशुद्ध भगवान् बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या है? यह प्रश्न चेतना का अस्तित्व बना रहता है। वैभाषिकों के इस उप सम्प्रदाय प्रारम्भ से विवाद का विषय रहा है। स्वयं बौद्ध दर्शन के अवान्तर का यह दृष्टिकोण जैन विचारण के निर्वाण के अति समीप आ जाता सम्प्रदायों में भी निर्वाण के स्वरूप को लेकर आत्यन्तिक विरोध पाया है, क्योंकि यह जैन विचारणा के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) जाता है। आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी निष्कर्ष और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता निकाले हैं, जो एक तुलनात्मक अध्येता को अधिक कठिनाई में डाल है। वैभाषिक दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, देते हैं। वस्तुतः इस कठिनाई का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवेचना की दृष्टि का विभिन्न दृष्टियों से अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना से अनिर्वचनीय मानता है, फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का है। आदरणीय श्री पुसे२१ एवं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त ने बौद्ध निर्वाण भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय, के सम्बन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों को निम्न रूप से वर्गीकृत वैभाषिक सम्प्रदाय के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों किया है का अभाव है, वह स्वीकार नहीं करता है कि असंस्कृत धर्म की कोई (१) निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है। भावात्मक सत्ता होती है। इनके अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही (२) निर्वाण अनिवर्चनीय अव्यक्त अवस्था है। तत्त्व का यथार्थ स्वरूप है। अत: सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी (३) निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। (४) निर्वाण भावात्मक विशुद्ध पूर्ण चेतना की अवस्था है। उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद बौद्ध दर्शन के अवान्तर प्रमुख सम्प्रदायों का निर्वाण के स्वरूप की अवहेलना करना है। शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के सम्बन्ध में निम्न प्रकार से दृष्टि भेद है में 'निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो जाना, इसके (१) वैभाषिक सम्प्रदाय के अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत पश्चात् ऐसा कोई जीवनशून्य तत्त्व शेष नहीं रहता है, जिसमें जीवन धर्मों का अभाव है, क्योंकि संस्कृत धर्मता ही अनित्यता है, यही बन्धन की प्रक्रिया समाप्त हो गई है। निर्वाण क्षणिक चेतना-प्रवाह का समाप्त है, यही दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दुःख निरोध है, बन्धनाभाव है हो जाना है, जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष नहीं रहता, इसलिए वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। परिवर्तनशीलता के उसकी भावात्मक सत्ता है। वैभाषिक मत के निर्वाण के स्वरूप को अतिरिक्त तत्त्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है और निर्वाण-दशा में अभिधर्मकोष व्याख्या में निम्न प्रकार से बताया गया है- “निर्वाण परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है, अत: उसके परे कोई सत्ता नित्य असंस्कृत स्वतन्त्र सत्ता, पृथक्-भूत, सत्य पदार्थ (द्रव्यसत) है"२३। शेष नहीं रहती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्वाण मात्र अभावात्मक निर्वाण में संस्कारों के अभाव का अर्थ अनसित्त्व नहीं है, वरन् एक अवस्था है। वर्तमान में वर्मा और लंका के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक भावात्मक अवस्था ही है। निर्वाण असंस्कृत धर्म है। प्रोफेसर एवं अनस्तित्त्व के रूप में देखते हैं। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक शरवात्स्की२४ ने वैभाषिक निर्वाण को अनन्त मृत्यु कहा है। उनके अनुसार और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं वरन् चेतना एवं क्रिया शून्य जड़ है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक अवस्था है। लेकिन समादरणीय एस० के० मुकर्जी, प्रोफेसर नलिनाक्ष बल देती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण सम्बन्धी अभावात्मक दत्त५ और प्रोफेसर मूर्ति ने प्रोफेसर शरवात्सकी के इस दृष्टिकोण दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है। लेकिन सौत्रान्तिको का विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित में भी एक ऐसा उपसम्प्रदायदशा था।' जिसके अनुसार निर्वाण अवस्था रूप से एक भावात्मक अवस्था है। इसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव में भी विशुद्ध चेतना पर्यायों का प्रवाह रहता है। यह दृष्टिकोण जैन होता है फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता विचारणा की इस मान्यता के निकट आता है, जिसके अनुसार निर्वाण होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं? की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्ष-दशा यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रोफेसर शरवात्सकी निर्वाण-दशा में चेतना में आत्मा में चैतन्य ज्ञान धारा सतत् रूप से प्रवाहित होती रहती है। का अभाव मानते हैं लेकिन प्रोफेसर मुकर्जी इस सम्बन्ध में एक (३) विज्ञानवाद (योगाचार)-महायान के प्रमुख ग्रन्थ लंकावतारसूत्र परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, उनके अनुसार (यशोमित्र की के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्ति विज्ञानों की अप्रवृतावस्था है; चित्त अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशुद्ध प्रवृत्तियों का निरोध है।२९ स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण मानस या चेतना रहती है। __ और ज्ञेयावरण का क्षय है। असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्वाण) (२) डॉ० लाड ने अपने शोध-प्रबन्ध में एवं विद्वत्वर्य बलदेव उचित है, क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं है। वह अनुपलम्भ है, उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिब्बतीय क्योंकि उसको कोई बाह्य आलम्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बन उप सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था रहित होने से लोकोत्तर ज्ञान है। दौष्ठुल्य अर्थात् आवरण (क्लेशावरण में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सास्त्रव) चेतना का ही अभाव और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत्त चित्त (आलयविज्ञान) परावृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy