SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ८. अल्पभाषी अपिशुनी तथा सत्यशील अवधारणा की स्पष्ट समीक्षा भी की थी। उन्होंने कहा था कि न तो ९. इन्द्रिय और मन पर अधिकार अलोलुप (इन्द्रिय विषयों में अनासक्त) सभी शूद्र काले होते हैं और न सभी ब्राह्मण शक्ल वर्ण के होते हैं। करने वाला __साथ ही महाभारत में वर्गों के आधार पर जीवों की उच्च एवं १०. तेजस्वी तेजस्वी निम्न गतियों का भी उल्लेख हुआ है। सभी वर्गों की चर्चा करते हुए ११. दृढ़धर्मी धैर्यवान भी बताया गया है कि नारकीय जीवों का वर्ण कृष्ण होता है, जो १२. नम्र एवं विनीत कोमल नरक से निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है। मानव जाति का वर्ण १३. चपलता रहित तथा शांत चपलतारहित (अचपल) नीला होता है। देवों का वर्ण रक्त (लाल) होता है। अनुग्रहशील विशिष्ट १४. पापभीरु, शान्त लोक और शास्त्रविरुद्ध आचरण में देवों का वर्ण हारिद्र और साधकों का वर्ण शुक्ल होता है। इस प्रकार लज्जा हम देखते हैं कि वर्णों (रंगों) के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण अनेक दृष्टियों से किया गया है। अप्रशस्त या अधर्म लेश्याओं में आसुरी सम्पदा से युक्त प्राणी की मनःप्राणियों की मनःस्थिति एवं स्थिति एवं चारित्र(गीताका दृष्टिकोण) योगसूत्र एवं लेश्या-सिद्धान्त चारित्र (उत्तराध्ययन के आधार पतंजलि ने अपने योगसूत्र में चार जातियाँ प्रतिपादित की हैंपर जैन दृष्टिकोण) १. कृष्ण, २. कृष्ण-शुक्ल, ३. शुक्ल और ४. अशुक्ल-अकृष्ण। १. अज्ञानी कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान का अभाव __इन्हें क्रमश: अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और और शुद्धतर कहा गया २. - नष्टात्मा एवं चिन्ताग्रस्त ३. मन, वचन एवं कर्म से अगुप्त मानसिक एवं कायिक शौच से रहित उपरोक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में कृष्ण (अपवित्र) और शुक्ल इन दो वणों की कल्पना की इन्हेंमनोवृत्ति, आचरण,गति ४. दुराचारी अशुद्ध आचार (दुराचारी) आदि से जोड़ा गया। जैन दर्शन में इन्हें कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी ५. कपटी कपटी, मिथ्याभाषी कहा गया तथा कृष्णपक्षी को मिथ्यादृष्टि और शुक्लपक्षी को सम्यक्६. मिथ्यादृष्टि आत्मा और जगत् के विषय में मिथ्या दृष्टि माना गया। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कृष्ण धर्म और शक्ल धर्म दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पण्डित कृष्ण धर्म का परित्याग ७. अविचारपूर्वक कर्म करने वाला अल्पबुद्धि कर शुक्ल धर्म का अनुसरण करे। आगे चलकर अकृष्ण-अशुक्ल रूप ८. नृशंस कूरकर्मी निर्वाण कल्पना के साथ तीन वर्ग बनाये गये। फिर जन्म के आधार ९. हिंसक हिंसक, जगत् का नाश करने वाला पर कृष्ण-अभिजाति और शुक्ल-अभिजाति की कल्पना का कर्म की १०. रसलोलुप एवं विषयी कामभोग परायण तथा क्रोधी दृष्टि से उक्त तीन अवस्थाओं से संयोग करके बौद्ध धर्म में भी छ: ११. अविरत तृष्णायुक्त वर्ग बने, जिनकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस प्रकार कृष्ण १२. चोर चोर और शुक्ल दोनों के संयोग से कृष्ण-शुक्ल नामक तीसरे और दोनों का अतिक्रमण करने से चौथे वर्ग की कल्पना की गयी और इस प्रकार महाभारत और लेश्या-सिद्धान्त एक चतुर्विध वर्गीकरण भी हुआ। पतंजलि और बौद्ध दर्शन में यह गीता महाभारत का अंग है और महाभारत में सनत्कुमार एवं चतुर्विध वर्गीकरण भी मिलता है। इस प्रकार कृष्ण और शुक्ल वर्ण वृत्रासुर के संवाद में प्राणियों के छ: प्रकार के वर्णों का निर्देश हुआ के मध्यवर्ती अन्य वर्गों की कल्पना के साथ आजीवक आदि कुछ है। वे वर्ण हैं- कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल। इन प्राचीन श्रमण धाराओं में षट् अभिजातियों की और जैनधारा में लेश्याओं छ:- वर्गों की सुखात्मक स्थिति का चित्रण करते हुए कहा गया की अवधारणा सामने आयी है। है कि कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है, रक्त वर्ण का सुख सह्य होता है, हारिद्र वर्ण सुखकर होता है और शुक्ल वर्ण लेश्या-सिद्धान्त एवं पाश्चात्य नीतिवेत्ता रॉस के नैतिक व्यक्तित्व का सर्वाधिक सुखकर होता है। वर्गीकरण ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में भी षट्-लेश्याओं की सुखदुःखात्मक पाश्चत्य नीतिशास्त्र में डब्ल्यू० रॉस भी एक ऐसा वर्गीकरण प्रस्तुत स्थितियों की चर्चा उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त महाभारत में करते हैं जिसकी तुलना जैन लेश्या-सिद्धान्त से की जा सकती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदि इन चार वर्णो के चार रंगों (वणों) रॉस कहते हैं कि नैतिक शुभ एक ऐसा शुभ है जो हमारे कार्यो, इच्छाओं, का भी उल्लेख मिलता है। इसमें शूद्र को कृष्ण,वैश्य को नील, क्षत्रिय संवेगों तथा चरित्र से सम्बन्धित है। नैतिक शुभता का मूल्य केवल को रक्त, और ब्राह्मण को शुक्ल वर्ण कहा गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य इसी बात में नहीं है कि उसका प्रेरक क्या है, वरन् उसकी अनैतिकता है कि जैनाचार्य जटासिंह नन्दी ने वरांगचरित (७वीं शती) में इस के प्रति अवरोधक शक्ति से भी है। उनके अनुसार नैतिक शुभत्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy