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________________ ३८० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ इस श्लोक के प्रसंग में दो शब्द महत्त्वपूर्ण हैं- सम्मे तथा की वृत्तियाँ उत्पन्न न हों। वह किंचित् भी संकल्प-विकल्प नहीं करे, धम्मसिक्खाये। धर्म-शिक्षण द्वारा मन को निग्रह करने का अर्थ दमन क्योंकि चित्त संकल्पों से व्याकुल होता है। सभी चित्त-विक्षोभ नहीं है वरन् उनका उदात्तीकरण है। धर्म-शिक्षण का अर्थ- मन को संकल्पजन्य है। अत: संकल्पयुक्त चित्त में स्थिरता नहीं आ सकती सद्प्रवृत्तियों में संलग्न कर देना ताकि वह अनर्थ मार्ग पर जाए ही है। वस्तुत: यहाँ आचार्य का मन्तव्य यह है कि चित्त को शान्त नहीं। ऐसे ही श्रुत रूप रस्सी से बाँधने का अर्थ है- विवेक एवं करने के लिये उसे संकल्प से मुक्त करना होगा और इस हेतु ज्ञाता, ज्ञान के द्वारा उसे ठीक ओर चलाना (यह समत्व के अर्थ में है)। द्रष्टा या साक्षी बनाना होगा। जब चित्त या मन द्रष्टा, साक्षी और अप्रमत्त समत्व के द्वारा निग्रहण का अर्थ भी दमन नहीं है, वरन् मनोदशा होगा तो स्वाभाविक रूप से वह वासनाओं एवं विक्षोभों से मुक्त हो को समभाव से युक्त बनाना है। मन का समत्व दमन में तो सम्भव जाएगा। चित्त-विक्षोभ केवल प्रमत्तदशा में रह सकता है, अप्रमत्तदशा ही नहीं होता, क्योंकि वह तो संघर्ष की अवस्था है। जब तक वासनाओं में नहीं। यह बात आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जब और नैतिक आदर्श का संघर्ष है तब तक समत्व हो ही नहीं सकता। मन स्वयं अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनेगा तो वह उनका कर्ता नहीं जैन साधना पद्धति तो समत्व (समभाव) की साधना है। वासनाओं रह जाएगा, क्योंकि एक ही मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता के दमन का मार्ग तो चित्त-क्षोभ उत्पन्न करता है, अत: वह उसे स्वीकार्य दोनों नहीं हो सकता। जिस समय वह द्रष्टाभाव में होगा उसी समय नहीं है। जैन साधना का आदर्श क्षायिक साधना है जिसमें वासना-दमन उसमें कर्त्ताभाव नहीं रह सकता। उदाहरण के लिए जब हम क्रोध करते नहीं, वरन् वासनाशून्यता ही साधना का लक्ष्य है। गीता में भी मन हैं, उस समय अपनी क्रोध की अवस्था को जानते नहीं हैं और जब के निग्रह का जो उपाय बताया गया है वह है- वैराग्य और अभ्यास। अपनी क्रोध की अवस्था को जानने का प्रयास करते हैं तो क्रोध शान्त वैराग्य मनोवृत्तियों अथवा वासनाओं का दमन नहीं है, अपितु भोगों होने लगता है। मनोविज्ञान का यह नियम है कि जब विवेक जाग्रत के प्रति एक अनासक्त वृत्ति है। तटस्थ वृत्ति या उदासीन वृत्ति दमन होगा तो वासना क्षीण होगी और जब वासना जाग्रत होगी तो विवेक से बिलकुल भिन्न है, वह तो भोगों के प्रति राग-भाव की अनुपस्थिति क्षीण होगा। अतः साधना में आवश्यकता होती है विवेक को जाग्रत है। दूसरी ओर अभ्यास शब्द भी दमन का समर्थक नहीं है। यदि बनाये रखने की। वासना-क्षय का सम्यग्मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, गीताकार को दमन ही इष्ट होता तो वह अभ्यास की बात नहीं कहता। अपितु विवेक को जाग्रत करना है। साधक को अपनी शक्ति वासनाओं दमन में अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यदि दमन से संघर्ष करने में नहीं, अपितु विवेक को जाग्रत करने में लगानी ही करना हो तो फिर अभ्यास किसलिये? अभ्यास होता है विलयन, चाहिए। वस्तुत: मन में जब विवेक का प्रकाश होता है तो वासना परिष्कार या उदात्तीकरण के लिए। वस्तुत: साधना का लक्ष्य वासना उसमें प्रवेश नहीं कर पाती, जैसे- जब घर का मालिक जागता है या चैतसिक आवेगों का विलयन (समाप्ति) होता है न कि उनका तो चोर घर में प्रवेश नहीं करता, वैसे ही जब मन अप्रमत्त या जाग्रत दमन, क्योंकि जब तक दमन है तब तक चित-विक्षोभ है। किन्तु साधना रहता है तो वासनाएँ स्वयं विलुप्त हो जाती हैं। का लक्ष्य तो समाधि है। समाधि वासनाओं के दमन से नहीं, अपितु उनके विलयन से फलित होती है।दमन में वासना रहती है अत: उसमें मन की विभिन्न अवस्थायें चित्त-विक्षोभ भी रहता है। जबकि विलयन में वासना ही समाप्त हो वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्तता की ओरजाती है अत: वह चित्त की शान्त अवस्था है। यही चित्त की शान्त मन की यह यात्रा अनेक सोपानों से होती है। जैन, बौद्ध और हिन्दू एवं निर्विकल्पक अवस्था सम्पूर्ण साधना-पद्धतियों का लक्ष्य है। यही परम्परा में इस सम्बन्ध में समानान्तर रूप से इन सोपानों का उल्लेख समाधि है, वीतरागता है। मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में मन की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया हैवासनाक्षय या मनोजय का सम्यग्मार्ग १.विक्षिप्त मन-यह मन की विषयासक्त और संकल्प-विकल्पयुक्त चित्तवृत्तियों या वासनाओं का विलयन (वासनाशून्यता) कैसे हो? विक्षुब्ध अवस्था है। इसे प्रमत्तता की अवस्था भी कह सकते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में एक समुचित मार्ग २. यातायात मन- मन इस अवस्था में कभी बहिर्मुखी हो प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि, “मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त विषय की ओर दौड़ता है, तो कभी अन्तर्मुखी हो द्रष्टा या साक्षी बनने होता है, उनसे उसे बलात् रोकना नहीं चाहिए, क्योकि बलात् रोकने का प्रयास करता है। साधना की प्रारम्भिक स्थिति में मन की यह अवस्था से वह उस ओर अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त रहती है। यह प्रमत्ताप्रमत्त अवस्था है। हो जाता है। जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाये तो वह और अधिक ३. श्लिष्ट मन- यह चित्त की अप्रमत्त अवस्था है। यहाँ चित्त प्रेरित होता है, अगर उसे नहीं रोका जाये तो वह इष्ट विषय प्राप्त निर्विषय तो नहीं होता, किन्तु उसके विषय शुभ-भाव होते हैं। यह करके शान्त हो जाता है। यही स्थिति मन की है।" साधक अपने अशुभ मनोभावों की विलय की अवस्था है, अत: इसे आनन्दमय अवस्था विषयों को ग्रहण करते हुए इन्द्रियों को न तो रोके और न प्रवृत्त करे, भी कहा गया है। अपितु इतना सजग (अप्रमत्त) रहे कि उनके कारण मन में राग-द्वेष ४. सुलीन मन- यहाँ चित्तवृत्तियों का पूर्ण विलयन हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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