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________________ ३६६ है। हरिभद्र संयोग से उस युग में उत्पन्न हुए जब पारस्परिक आलोचना- प्रत्यालोचना अपनी चरम सीमा पर थी। फिर भी हरिभद्र न केवल अपनी समालोचनाओं में संयत रहे अपितु उन्होंने सदैव ही अन्य परम्पराओं के आचार्यों के प्रति आदरभाव प्रस्तुत किया। शास्त्रवार्तासमुच्चय उनकी इस उदारवृत्ति और सहिष्णुदृष्टि की परिचायक एक महत्त्वपूर्ण कृति है। बौद्ध दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा करने के उपरान्त वे कहते हैं कि बुद्ध ने जिन क्षणिकवाद, अनात्मवाद और शून्यवाद के सिद्धान्तों का उपदेश दिया, वह वस्तुतः ममत्व के विनाश और तृष्णा के उच्छेद के लिए आवश्यक ही था। वे भगवान् बुद्ध को अर्हत्, महामुनि और सुवैद्य की उपमा देते हैं और कहते है कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी के रोग और प्रकृति को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए भिन्न-भिन्न रोगियों को भिन्न-भिन्न औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए इन विभिन्न सिद्धान्तों का उपदेश दिया है। ऐसा ही उदार दृष्टिकोण वे सांख्य दर्शन के प्रस्तोता महामुनि कपिल और न्यायदर्शन के प्रतिपादकों के प्रति भी व्यक्त करते हैं। कपिल के लिए भी वे महामुनि शब्द का प्रयोग कर अपना आदर भाव प्रकट करते हैं । ३२ विभिन्न विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार संगति स्थापित की जा सकती है इसका एक अच्छा उदाहरण उनका यह ग्रन्थ है। १२ वीं शताब्दी के पसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी प्रकार मार्मिक सहिष्णुता और उदारवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने न केवल भगवान् शिव की स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की अपितु शिवमन्दिर में जाकर शिव की वन्दना करते हुए कहा- जिसने संसार परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन जैनों की इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया । कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्य हेमचन्द्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति १. २० आयाणे अज्जो सामाइए, आयाणे अज्जो सामाइयस्स अट्ठेव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा० मधुकरमुनि प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९९२ १/९. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए - आचारांगसूत्र, संपा० मुधकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, १/८/३. धर्म जीवन जीने की कला - पृ० ७-८. ३. ४. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, खम्भात्, वि०सं० १९९२ १३७. जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ५. आचारांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, १/४/२. ६. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, सम्वत्, वि०सं० १९९२, १३३. णाणाजीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धी । तन्हा वदविवाद सगपरसनएहिं वज्जिजो नियमसार, अनु० 11 ७. Jain Education International को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमन्दिर में स्वयं उपस्थित होकर अपने उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचंद्र के समान इस उदार परम्परा का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण आज भी उलब्ध होते हैं दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी में मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के मन्दिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके है उनका यह कहना कि माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है, धार्मिक सहिष्णुता का मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनन्दघन भी कहते हैं षडदर्शन जिन अंगभणोजे न्यायषडंग जे साधे रे । नमिजिनवरना चरम उपासक षड्दर्शन आराधे रे।। अर्थात् सभी दर्शन जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति वर्तमान युग तक यथार्थतः जीवित है। आज भी जैनों की सर्वप्रिय प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता है जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो । वस्तुतः यदि हम विश्व में शान्ति की स्थापना चाहते हैं, यदि हम चाहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा और विद्वेष की भावनाएँ समाप्त हों और सभी एक-दूसरे के विकास में सहयोगी बनें, तो हमें आचार्य अमितगति के निम्न चार सूत्रों को अपने जीवन में अपनाना होगा। वे कहते हैं३३— सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्य भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।। हे प्रभु! प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःख एवं पीड़ित जनों के प्रति कृपाभाव तथा विरोधियों के प्रति माध्यस्थभाव – समताभाव मेरी आत्मा में सदैव रहे । ८. पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रका० सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द महान जैन दिगम्बर तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, १९८८, १५६ । एवाई मिच्छद्दिस्सि मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छसुयं एयाणि चेव सम्मदिद्विस्स सम्मत्तपरिहियाई सम्मसूयं अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि सम्मसूर्य कम्हा? सम्मलहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्टिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिडीओ वयेति से तं मिच्छसुयं । नन्दीसूत्र, प्रका० धर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम, सं० २००५, ७२। ९अ. भगवती — अभयदेवकृत वृत्ति, प्रका० केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था, सूरत, १९३७, १४/७/ पृ० ११८८। (ब) मुक्खमग्ग पवन्नानं सिनेहो वज्जसिंखला। वीरे जीवन्तए जाओ गोयम जं न केवलि ।। - उद्धृतत कल्पसूत्र टीका विनयविजय प्रका० हीरालाल जैन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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