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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म ३६१ की दृष्टि कितनी उदार थी कि उन्होंने इन पांच पदों में किसी व्यक्ति रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न हैं, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। का नाम नहीं जोड़ा। यही कारण है कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत महावीर ने सूत्रकृतांग में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा हैमतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिये जाते तो सम्भवत: आज तक उसका जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया।।१२ । स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार अर्थात् जो लोग अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्त्वपूर्ण की निन्दा करते हैं तथा दूसरों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं वे संसार प्रमाण है। उसमें भी 'लमों लोए सव्व साहूणं" यह पद तो धार्मिक में परिभ्रमण करते रहते हैं। जैन परम्परा का यह विश्वास रहा है कि उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा सकता है। इसमें साधक कहता सत्य का सूर्य सभी के आँगन को प्रकाशित कर सकता है। उसकी है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। वस्तुत: जिसमें किरणें सर्वत्र विकीर्ण हो सकती हैं। जैनों के अनुसार वस्तुत: मिथ्यात्व। भी साधुत्व या मुनित्व है वह वन्दनीय है। हमें साधुत्व को जैन व असत्यता तभी उत्पन्न होता है, जब हम अपने को ही एकमात्र सत्य बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों और अपने विरोधी को असत्य मान लेते हैं। जैन आगम साहित्य में के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति मिथ्यात्व के जो विविध रूप बताये गये हैं, उनमें एकान्त और आग्रह नहीं है, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति को भी मिथ्यात्व कहा गया है। कोई भी कथन जब वह अपने विरोधी है, वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र कथन का एकान्तरूप से निषेधक होता है, मिथ्या हो जाता है और में कहा गया है कि जब उन्हीं मिथ्या कहे जाने वाले कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। कर लिया जाता है तो वह सत्य बन जाता है। जैन आचार्यों ने जैन न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो।। धर्म को मिथ्यामतसमूह कहा है। आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क प्रकरण समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। में कहते हैंनाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो।११ भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने जिणवयस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स।। १३ ।। से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता अर्थात् 'मिथ्यादर्शनसमूहरूप अमृतरस प्रदायी और मुमुक्षुजनों 'और कुशचीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समता से को सहज समझ में आने वाले जिनवचन का कल्याण हो।' यहाँ जिनधर्म श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस को 'मिथ्यादर्शनसमूह' कहने का तात्पर्य है कि वह अपने विरोधी मतों कहलाता है। की भी सत्यता को स्वीकार करता है। जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह ___ धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफ़िर कहना सिद्धसेन की विशालहृदयता का भी परिचायक है। वस्तुत: जैन आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया है। हम सामान्यतया यह मान धर्म में यह माना गया है कि सभी धर्ममार्ग देश, काल और लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही वैयक्तिक-रुचि-वैभित्र्य के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु वे सभी आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला है तथा दूसरे धर्म और दर्शन किसी दृष्टिकोण से सत्य भी होते हैं। में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफिर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह है- मैं ही सच्चा हूँ और मेरा विरोधी मुक्ति का द्वारः सभी के लिए उद्घाटित झूठा। यही दृष्टिकोण असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का मूलभूत वस्तुत: धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का एक कारण कारण है। हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न यह भी होता है कि हम यह मान लेते हैं कि मुक्ति केवल हमारे धर्म केवल दूसरों को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफ़िर समझते हैं, अपितु में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर है या प्राप्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनियाँ को सच्चे रास्ते भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति कर सकते हैं। किन्तु यह मान्यता एक भ्रान्त आधार पर खड़ी है। हमारे धर्म और धर्मगुरु की शरण में ही होगी। इस एक अंधविश्वास वस्तुत: दु:ख या बन्धन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराये मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए सदैव ही उदार रहा है। जैन धर्म यह मानता है कि जो भी व्यक्ति हमने अनेक बार खून की होलियाँ खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न बन्धन के मूलभूत कारण राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर सकेगा, धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल जैन ही फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक मोक्ष को प्राप्त करेंगे और दूसरे लोग मोक्ष को प्राप्त नहीं करेंगे। दोहरो मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में उत्तराध्ययनसूत्र में, जो कि जैन परम्परा का एक प्राचीन आगम ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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