SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले के कारण साधनागत विभिन्नताएँ आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दू पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन धर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व एवं पश्चात् शारीरिक शुद्धि का दीन-दुःखियों की सेवा में उपयोग करो-ये सब सभी धर्मशास्त्रों का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न में समान रूप से प्रतिपादित हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन है। मुसलमान अपनी शरीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटी-छोटी बातों को ही अधिक जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुँह को नीचे से पकड़ते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती है। ऊपर की ओर धोता है, क्योंकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुँह ऊपर से नीचे की ओर आया था। किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक्-श्रुत और मिथ्या-श्रुत के धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शद्धि नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किन्तु फिर का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक के कारण एक पद्धति अपनायी गई, तो भारत में जल की बहुलता इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक्-श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत होने के कारण दूसरी पद्धति अपनायी गयी। अत: आचार के इन बाहरी भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक्-श्रुत भी हो सकता रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह है। श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपूजा का हो या अन्य कोई, हम देखते पर नहीं, अपितु उसके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के जैन आचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'एक मिथ्यादृष्टि के लिए रुचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना ही बुतपरस्ती सम्यक्-श्रुत भी मिथ्या-श्रुत हो सकता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए का विरोध किया हो किन्तु मुहर्रम, कब-पूजा आदि के नाम पर प्रकारान्तर मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्-श्रुत हो सकता है। सम्यक्-दृष्टि व्यक्ति मिथ्या-श्रुत से उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गयी है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य में से भी अच्छाई और सारतत्त्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक्-श्रुत में भी बुराई और कमियाँ देख सकता का विकास हुआ। अत: धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज है। अत: शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलत: व्यक्ति सम्बन्धी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार के दृष्टिकोण पर निर्भर है। ग्रन्थ और इसमें लिखे शब्द तो जड़ होते न मानकर, इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का अपना मनस है। रखना आवश्यक है। हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की अत: श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता मुलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण। एक व्यक्ति सुन्दर में भी असुन्दर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुन्दर शाख की सत्यता का प्रश्न में भी सुन्दर देखता है। अत: यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बर यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक्-शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते हैं अपितु उसे अपने-अपने सच्चा और प्रामाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो हमें यह जान ढंग से व्याख्यायित करके उस विचार-भेद के आधार पर विवाद करने लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्रोत तो धर्म-प्रवर्तक के उपदेश का प्रयत्न करते हैं। परन्तु शास्त्र को जब भी व्याख्यायित किया जाता ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। है, वह देश, काल और वैयक्तिक रुचि भेद से अप्रभावित हुए बिना जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग से सर्वथा अप्रभावित रहे, यह कहना बड़ा कठिन है। महावीर के उपदेश दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और उनके परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद लिखे गये-क्या इतनी लम्बी राधाकृष्णन् के लिए अलग-अलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अत: कालावधि में उसमें कुछ घटाव-बढ़ाव नहीं हुआ होगा? न केवल यह शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्ध धर्म के शास्त्रों का देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है, उससे जो अर्थबोध भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के किया जाता है, वही महत्त्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता जीवनकाल में नहीं लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है; अत: महत्त्व दृष्टि का है, गये, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गये, न ईसा के जीवन शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुरान। पुनः यदि प्रत्येक हममें नीर-क्षीर विवेक की क्षमता हो और शास्त्र के वचनों को हम धर्मशास्त्र में से दैशिक, कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर उस परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कहे गये हैं, तो धर्म के उत्स या मूलतत्त्व को देखा जाये, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जायेगा। जैनाचार्यों ने नन्दीसूत्र में भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम-हत्या मत जो यह कहा कि सम्यक्-श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy