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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म धार्मिक सहिष्णुता: आज की आवश्यकता आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी एक ओर अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है, तो दूसरी ओर वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। धार्मिक एवं राजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। कहीं धर्म के नाम पर कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है। सब अपने को मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा कर रहे हैं और दूसरे को भ्रान्त तथा भ्रष्ट बता रहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मनुष्य के मानस को उन्मादी बनाकर पारस्परिक घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति की बात करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करते हैं। 'इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते हैं फ़िर्केबन्दी है कहीं, और कहीं जाते हैं, क्या जमाने में पनपने की यही बाते हैं ? यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों ने आज विश्व की दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट रहा है; किन्तु आज मनुष्य मनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक-दूसरे को कटता चला जा रहा है आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर इजरायल और अरब में यहूदी और मुसलमान लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया और सुन्नी इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में भी कहीं हिन्दू और मुसलमानों को तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक-दूसरे के विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है. अफ्रीका में काले और गोरे का संघर्ष चल रहा है, तो साम्यवादी रूस और पूँजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं। आज मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है, जहाँ से उसने यदि अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। 'इकबाल' स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं " अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियाँ से तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में ।। Jain Education International विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानव जाति के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा, तो कोई भी छोटी सी घटना इस चिता को चिनगारी दे देगी और तब हम सब अपने हाथों तैयार की गयी इस चिता में जलने को मजबूर हो जायेंगे। असहिष्णुता और वर्ग-विद्वेष- फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या साम्प्रदायिकता के नाम पर - हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिये जा रहे हैं। आज की इस स्थिति के सम्बन्ध में उर्दू के शायर 'चकबस्त' ने ठीक ही कहा हैमिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी ।। अतः आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके। धार्मिक मतान्यता क्यों? धर्म को अंग्रेजी में 'रिलीजन' (Religion) कहा जाता है। रिलीजन शब्द रिलीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है— फिर से जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हुआ है, किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खड़ी की गयीं और उसे एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहे हैं। विश्वइतिहास का अध्येता इस बात को भलीभांति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। आश्चर्य तो यह है कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन की इन घटनाओं क का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य को एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शान्ति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता । इन सबके पीछे वस्तुतः धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुतः कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वायों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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