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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व गवेषणापटु मनीषी : डॉ० सागरमल जैन डॉ० सागरमल जैन जैनविद्या के सुप्रतिष्ठ हस्ताक्षर हैं। उन्होंने जैनविद्या की उदारवादी समीक्षा और पूर्वाग्रह रहित चिन्तन से उसे जो व्यापकता प्रदान की है, वह ततोऽधिक श्लाघनीय है। डॉ० सागरमलजी गवेषणापटु मनीषी हैं। उन्होंने अपनी शोध-सूक्ष्मेक्षिका द्वारा जैन विद्या को नई अस्मिता दी है और उसके अनेक नये आयामों का उद्भावन किया है। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों से जैन वाङ्मय समृद्ध तो हुआ ही है, उसे प्रामाणिकता और विश्वसनीयता भी प्राप्त हुई है। 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' नामक उनका अन्य तो तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में एक पार्यन्तिक कृति है । Jain Education International - डॉ० श्रीरजन सूरिदेव * डॉ० सागरमल जी 'विद्या ददाति विनयं के साक्षात् विग्रह हैं। जब भी उनके दर्शन और सत्संग का अवसर मिला, उनके शुभैषी व्यक्तित्व और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार से सुखद कृतार्थता की अनुभूति हुई। जैन जगत् में ही नहीं समग्र सारस्वत जगत् में उनके जैसा साधुचरित एवं निरहंकारचेता व्यक्ति प्रायोविरल है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ उनकी निदेशकीय गरिमा और सारस्वत साधना के प्राप्ति सतत् प्रशंसा मुखर रहेगा। विद्यापीठ की उत्कर्ष यात्रा के क्रोशशिला के रूप में वह चिरस्मरणीय रहेंगे । पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती के अवसर पर उनके अभिनन्दन के लिए ग्रन्थ का प्रकाशन अवश्य ही उसकी प्रबन्ध समिति की समयज्ञता का अनुकरणीय निदर्शन है। आशा है, यथा प्रस्तावित अभिनन्दन ग्रन्थ तद्विषयक ग्रन्थों की परम्परा में शिखरस्थ सिद्ध होगा, साथ ही जैनविद्या की ऐतिहासिक शोध प्रस्तुति के रूप में सर्व समादृत होगा । * पूर्व व्याख्याता, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली (बिहार) डॉ० सागरमल जैन: त्यागमय संयमी जीवन के धनी डॉ० कमल जैन* घटनायें जब घटती हैं तब उनका प्रभाव किस स्तर पर कितनी गहराई से पड़ रहा है इसका सम्यक् बोध भी नहीं . हो पाता, पर जब मुधर स्मृतियों का आलोड़न विलोड़न करने बैठते हैं तो कुछ ऐसे व्यक्तियों के चित्र उभरते हैं, जिनकी प्रेरणा और वात्सल्य से जीवन में एक सुखद परिवर्तन हुआ है। ऐसा ही एक विशिष्ट व्यक्तित्व है, डॉ० सागरमल जैन जी का, जिनके प्रति कृतज्ञता का बोध मेरे हृदय में गहरे तक समाया हुआ है लेकिन कृतज्ञता ज्ञापन के लिये पर्याप्त शब्द नहीं संजो पा रही हूँ । बात १९७९ की है, अपने पति का वाराणसी स्थानान्तरण होने पर मुझे पार्श्वनाथ विद्याश्रम जाने का अवसर मिला । डॉ० सागरमल जी वहां पर निदेशक पद पर आये ही थे। उन्होंने मेरी जैन विद्या के प्रति रुचि देखते हुये मुझे पीएच० डी० करने के लिये उत्साहित किया, मुझे यह असंभव लगा, पढ़ाई छोड़े १५ वर्ष हो चुके थे, प्राकृत भाषा आती नहीं थी, ऊपर से घर-गृहस्थी की जिम्मेवारी परन्तु आपने अपने निजी जीवन की परिस्थितियों का उदाहरण देते हुये मुझे इतना तो तैयार कर दिया कि मैने पी-एच०डी० के लिये रजिस्ट्रेशन करा लिया। प्राकृत भाषा पर अधिकार न होने के कारण मै For Private & Personal Use Only २३ www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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