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________________ ३५० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ इसे समाज-धर्म कह सकते हैं। ले किन्तु कुपत्य को छोड़े नहीं। धर्म के नाम पर आत्म-प्रवंचना एवं स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्त्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्त्व के बारे है, वह तो विभाव के हटते ही स्वत: प्रकट हो जाता है जैसे आग में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते हैं किन्तु धर्म को के संयोग के हटते ही पानी स्वत: शीतल हो जाता है, वैसे ही धर्म नहीं जानते हैं। के लिये कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, आज हमने आत्म-धर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या विभावदशा को दूर करना होता है, क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों जा सकता है जो आरोपित होता है और वह विभाव होगा, स्वभाव को ही धर्म मान बैठे हैं। आज हमारे धर्म चौके-चूल्हे में, मन्दिरों-मस्जिदों नहीं। धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हैं, वे सब अधर्म को और उपासना गृहों में सीमित हो गये हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क त्यागने के लिये है, विभाव-दशा को मिटाने के लिये हैं धर्म तो आत्मा नहीं है। इसीलिये वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल ने ठीक ही कहा हैविषय कषाय रूप मल को हटाना है। जैसे बादल के हटते प्रकाश मस्जिद तो बना दी पल भर में इमां की हरारत वालों ने । स्वत: प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या मन वही पुराना पापी रहा, बरसों में नमाजी न हो सका ।। स्वभाव प्रकट हो जाता है। इसीलिये धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बन्ध जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत परलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और करता है, क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहरे होते हैं। अधार्मिकजन इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किन्तु याद रखिये दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फल तत्काल प्रति उसके ठीक विपरीत व्यवहार करना चाहता है। इसीलिये धर्म है। भगवान् बुद्ध से किसी ने पूछा कि धर्म का फल इस लोक में की कसौटी आत्मवत् व्यवहार माना गया। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मिलता है या परलोक में? उन्होंने कहा था- धर्म का फल तो उसी मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है- समय मिलता है। जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और निश्छलता, सरलता, स्पष्टता; जहाँ भी इनका अभाव होगा, वहाँ धर्म चिन्ता कम हो जाती है, मन शान्ति और आनन्द से भर जाता है, को जिया नहीं जायेगा अपितु ओढ़ा जायेगा। वहाँ धर्म नहीं, धर्म का यही तो धर्म का फल है। हम यदि अपनी अन्तरात्मा से पूछे कि हम दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि वह धर्म का दम्भ अधार्मिकता क्या चाहते हैं? उत्तर स्पष्ट है हमें सुख चाहिये, शान्ति चाहिये, समाधि से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म, धर्म की पोषाक को या निराकुलता चाहिये और जो कुछ आपकी अन्तरात्मा आपसे माँगती ओढ़ लेता है, वह दीखता धर्म है, किन्तु होता है अधर्म। मानव जाति है वही तो आपका स्वभाव है, आपका धर्म है। जहाँ मोह होगा, राग का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है होगा, तृष्णा होगी, आसक्ति होगी, वहाँ चाह बढ़ेगी, जहाँ चाह बढ़ेगी, वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिये धर्म के नाम पर वहाँ चिन्ता बढ़ेगी और जहाँ चिन्ता होगी वहाँ मानसिक असमाधि अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण या तनाव होगा और जहाँ मानसिक तनाव या विक्षोभ है वहीं तो दुःख कर्मकाण्डों से जोड़ दिया गया है, क्या पहनें और क्या नहीं पहनें, है, पीड़ा है। जिस दुःख को मिटाने की हमारी ललक है उसकी जड़े क्या खायें और क्या नहीं खायें, प्रार्थना के लिये मुँह किस दिशा हमारे अन्दर हैं, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि हम उसे बाहर के भौतिक में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा साधनों से मिटाने का प्रयास करते रहे हैं। यह तो ठीक वैसा ही हुआ के द्रव्य क्या हों? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती जैसे घाव कहीं और हो और मलहम कहीं और लगायें। अपरिग्रहवृत्त हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किन्तु निश्चय ही ये धर्म या अनासक्ति को जो धर्म कहा गया, उसका आधार यही है कि वह की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है- समाधि, शान्ति, निराकलता। ठीक उस जड़ पर प्रहार करता है, जहाँ से दुःख की विषवेल फूटती धर्म तो सहज और स्वाभाविक है। दुर्भाय यही है कि आज लोग धर्म है, आकुलता पैदा होती है। वह धर्म इसीलिये है कि वह हमें आकुलता के नाम पर बहुत कुछ कर रहे हैं परन्तु अधर्म या विभावदशा को से निराकुलता की दिशा में, विभाव से स्वभाव की दिशा में ले जाती छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है, इसीलिये आज है। किसी कवि ने कहा हैका धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे चाह गई, चिन्ता मिटी मनुआ भया बेपरवाह। किसी दुर्गन्ध के ढेर को स्वच्छ सुगन्धित आवरण से ढक दिया गया जिसको कुछ न चाहिये, वह शहंशाहों का शहंशाह।। हो। यह बाह्य प्रतीति से सुन्दर होती है किन्तु वास्तविकता कुछ और निराकुलता एवं आकुलता ही धर्म और अधर्म की सीधी और ही होती है। यह तथाकथित धर्म ही धर्म के लिये सबसे बड़ा खतरा साफ कसौटी है। जहाँ आकुलता है, तनाव है, असमाधि है वहाँ अधर्म है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिये धर्म किया जाता है। आज धर्म है और जहाँ निराकुलता है, शान्ति है, समाधि है, वहाँ धर्म है। जिन के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल बातों से व्यक्ति में अथवा उनके सामाजिक परिवेश में आकुलता बढ़ती रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसे ही है जैसे कोई रोगी दवा तो है, तनाव पैदा होता है, अशान्ति बढ़ती है, विषमता बढ़ती है, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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