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________________ ३४८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भगवान् महावीर ने आचाराङ्गसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में इस बात को या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरुढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं ईसाई, न इस्लाम। ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा धर्म तो है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण वही है जो हमारा निज-स्वभाव है। इसीलिये जैन आचार्यों ने 'वत्थु सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, लिये जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिये धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या इसीलिये गीता में कहा गया है 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' वीतराग के लिए नहीं। अत: जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन (गीता, ३/३५)। परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिये भयावह की है, जीवन के निषेध की नहीं, क्योकि उसकी दृष्टि में ममत्व या कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिये स्वभाव न होकर विभाव होगा और आसक्ति ही वैयक्तिक और समाजिक जीवन की समस्त विषमताओं जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। अत: आपका धर्म का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दुःखों वही है जो आपका निज-स्वभाव है। किन्तु आप सोचते होंगे कि बात का निराकरण सम्भव है। अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या धर्म साधना का उद्देश्य है- व्यक्ति को शान्ति प्रदान करना, है? वस्तुत: हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या किन्तु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे अपनी प्रकृति को जानना होगा। किन्तु यहाँ यह बात भी समझ लेनी हैं- एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा होगी कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना है। शान्तिप्रदाता धर्म ही आज अशान्ति का कारण बन गया है। वस्तुतः स्वभाव या प्रकृति मान लेते हैं। अत: हमें स्वभाव और विभाव में इसका कारण धर्म नहीं, अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। अन्तर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वत: (अपने आप) हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमने 'धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गये हैं। में शीतलता स्वाभाविक है, किन्तु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके आयें देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है? लिये उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, जिसे होने के लिये किसी बाहरी तत्त्व की अपेक्षा है वह सब विभाव धर्म का स्वरूप है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म - धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई है। पुनः जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म जाती है। धर्म क्या है? इस प्रश्न के आजतक अनेक उत्तर दिये गये नहीं हो सकता है। किन्तु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता हैं, किन्तु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करता है। वे कहते हैं - में हो वह जलायेगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना ही धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी की धर्म की इस वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पायेंगे? यहाँ इस चर्चा दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अन्तर समझ भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की को धर्म कहा गया है, आयें जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। भूल कर बैठते हैं, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी है। सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध स्वभाव है या हो भी सकता है? में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शान्ति के दो गुणों है तो यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता को कसिये और देखिये, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली है। किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वत: नहीं होता, बिना किसी बाहरी करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से या क्रोध का कोई न कोई धर्म है तो यहाँ धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार बाह्य कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है। साथ जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है, ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरुरी है, गुस्सा या क्रोध तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं। यहाँ धर्म का मतलब है किसी बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वत: नहीं होता है, अकेले में नहीं होता दिव्य-सत्ता, सिद्धान्त या साधना-पद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइये, आप देखेंगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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