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________________ ३४६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ विस्मृत हो गयी और उनके भेद ही प्रमुख बन गये। इसकी फलश्रुति कहा हैधार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों के रूप में प्रकट हुई। यदि तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना। हम धर्म के मूल उत्स और शिक्षाओं को देखें तो मूसा की दस आज्ञायें, बरकत जो नहीं होती, नीयत की खराबी है।। ईसा के पर्वत पर के उपदेश, बुद्ध के पञ्चशील, महावरी के पञ्चमहाव्रत, आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित और पतञ्जलि के पञ्चयम एक-दूसरे से अधिक भिन्न नहीं हैं। वस्तुत: सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल ये धर्म की मूलभूत शिक्षायें हैं और इन्हें जीवन में जीकर व्यक्ति न एवं स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है, आज जीवन के केवल एक अच्छा ईसाई, जैन, बौद्ध या हिन्दू बनता है अपितु वह हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छयों का बाहुल्य है। मनुष्य आज न तो सच्चे अर्थ में धार्मिक भी बनता है। अपनी मूलप्रवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया दुर्भाग्य से आज धार्मिक साम्प्रदायिकता ने पुनः मानव समाज है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाये रखने के को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और धर्म के कुछ तथाकथित ठेकेदार लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका अपनी शूद्र ऐषणाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्म के नाम ‘पशुत्व' कुलाँचें भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना पर मानव समाज में न केवल बिखराव पैदा कर रहे हैं, अपितु वे चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालाएँ और बाहर सच्चरित्रता एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध उभाड़ रहे हैं। और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की मनुष्य की दुविधा-अध्यात्मवाद । भौतिकवाद दमित मूलप्रवृत्तियाँ और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज आज मनुष्य अंशात, विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। बौद्धिक भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्ष से गुजर रही है- एक आन्तरिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त और दूसरा बाह्य। आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, तनावयुक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण मानव-जीवन अशान्त मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पायी है। ज्ञान-विज्ञान और अस्त-व्यस्त। आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के असन्तुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु एक सार्थक भोग-लोलुपता पर विवेक एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। सामञ्जस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षाभाव भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मन की माँग है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नये को सन्तुष्ट नहीं कर सका है। आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की की दूरी को कम कर दिया है, किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नये मूल्यों की प्रसव-पीड़ा से गुजर की दूरी आज ज्यादा हो गयी है। यह कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है; उसके सामने जाति एवं वर्ण के नाम एक-दूसरे से कटते चले जा रहे हैं। सुरक्षा दो ही विकल्प हैं- या तो पुन: अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओर के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन में अभय का विकास लौट जाये या फिर एक नये मानव का सृजन करे, किन्तु पहला विकल्प नहीं कर पायी है, आज भी वह उतना ही आशंकित, आतंकित और अब न तो सम्भव है और न वरेण्य। अत: आज एक ही विकल्प आक्रामक है, जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, शेष है- एक नये आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज आज विध्वंसकारी शस्त्रों के निर्माण के साथ उसकी यह आक्रामक हम उस कगार पर खड़े हैं, जहाँ मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार वृत्ति अधिक विनाशकारी बन गयी है और वह शस्त्र-निर्माण की इस रहा है। यहाँ जोश का यह कथन कितना मौजूं हैदौड़ में सम्पूर्ण मानव जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार कर रहा सफाइयाँ हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे हैं मैले। है। आर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य उतना ही अधिक अन्धेरा छा जायेगा जहाँ में, अगर यही रोशनी रहेगी।। अर्थलोलुप है, जितना कि वह पहले कभी रहा होगा। आज मनुष्य इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है की इस अर्थलोलुपता ने मानव जाति को शोषक और शोषित ऐसे कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे दो वर्गों में बाँट दिया है, जो एक दूसरे को पूरी तरह निगल जाने वर्तमान संकट से उबार सकता है? जैन धर्म कहता है कि भौतिकवादी की तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तद्जनित स्वार्थ एवं शोषण है तो दूसरा पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए व्यग्र और विक्षुब्ध। की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, क्योंकि आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से भौतिकवादी दृष्टि में मनुष्य मूलत: पशु ही है। वह मनुष्य को एक सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू०एस०ए०, मानसिक तनावों एवं आध्यात्मिक (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इससे पशु (Developed social animal) ही मानती है। जबकि जैन धर्म सम्बन्धित आँकड़े चौंकाने वाले हैं। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है। भौतिकवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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