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________________ ३४४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आपको जानना है। अपने आपको जानने का तात्पर्य अपने में निहित हेतु शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है, वासनाओं और विकारों को देखना है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है, साथ ही साथ समाज को हम यह देखें कि हमारे जीवन में कहाँ अहंकार छिपा पड़ा है और भी संत्रस्त बना देता है। इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता कहाँ किसके प्रति घृणा-विद्वेष के तत्त्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोई है कि सुख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। सुख-दुःख हौव्वा नहीं है, वह तो अपने अन्दर झांककर अपनी वृत्तियों और आत्म-केन्द्रित है। आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे और भोक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गये और परिशोधन से कितनी अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों किसे शक्ति प्राप्त होती है यह भी जान गये, किन्तु आत्मा के परिशोधन में स्थित आत्मा शत्रु है। वस्तुत: आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि की जो कला अध्यात्म के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने दी, आज पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती है। अध्यात्मवाद हम उसे भूल चुके हैं। के अनुसार देहादि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का विसर्जन फिर भी विज्ञान ने आज हमारी सुख-सुविधा प्रदान करने के साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और ममत्व का सृजन अतिरिक्त जो सबसे बड़ा उपकार किया है, वह यह कि धर्मवाद के यही जीवन का परम मूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व नाम पर जो अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास पल रहे थे उन्हें तोड़ दिया का सृजन होगा, और जब समत्व का सृजन होगा तो शोषण और है। इसका टूटना आवश्यक भी था, क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर संग्रह की सामाजिक बुराइयां समाप्त होंगी। परिमाणत: व्यक्ति आत्मिक मानव समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। शान्ति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान तो रहेगा विज्ञान ने अच्छा ही किया हमारा यह भ्रम तोड़ दिया। किन्तु हमें किन्तु उसका उपयोग संहार में न होकर सृजन में होगा, मानवता के यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। कल्याण में होगा। इससे जो रिक्तता पैदा हुई है उसे आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के द्वारा अन्त में पुन: मैं यही कहना चाहूँगा कि विज्ञान के कारण जो ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा एक संत्रास की स्थिति मानव समाज में दिखाई दे रही है उसका मूलभूत है, जो जीवन को शान्ति और आत्मसंतोष प्रदान करते हैं। कारण विज्ञान नहीं, अपितु व्यक्ति की संकुचित और स्वार्थवादी दृष्टि अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुत: भौतिकवाद और ही है। विज्ञान तो निरपेक्ष है, वह न अच्छा है और न बुरा। उसका अध्यात्मवाद का संघर्ष है। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है। अत: आज विज्ञान को आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिकता और मानवता के उच्च मूल्य भी नकारने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है उसे सम्यक्-दिशा हैं। महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परम मूल्य में नियोजित करने की और यह सम्यक्-दिशा अन्य कुछ नहीं, यह न मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि के सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अत: भौतिकवादी सुखों की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन की लालसा में वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है तथा उनकी उपलब्धि दोनों में समन्वय कर सके बल्कि यही कामना है। सन्दर्भ: १. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। -आचाराङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, २/५/५। २. वही, १/१/१। ३. आत्मज्ञान और विज्ञान (बिनोवा)। ४. वही । ५. वही । ६. अप्पा खलु मित्तं अमित्तं च सुपट्ठिओ दुपट्ठिओ। ७. ईशावास्योपनिषद्, (गीताप्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१७).९। ८. वही, ११। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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