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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वयं में एक संस्था : डॉ० सागरमल जैन भूपेन्द्रनाथ जैन* विद्वानों में विद्वान्, फिर भी सात्त्विक आचरण, सरल हृदय, वाणी में मृदुलता, घमंड से दूर, मानवता के पर्याय, श्रावक संत डॉ० सागरमल जी का सम्पर्क मेरे पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों की ही देन है । ऐसा व्यक्ति व व्यक्तित्व आज के युग में बिरल ही मिलता है । उनको विद्यापीठ के लिए पा लेना यह मेरा सौभाग्य रहा है । लगभग २० वर्षों से, उनसे मेरी अधिक वयस होते हुए भी, मैं अपने हृदय के उद्गार प्रकट करता हूं कि मैंने उनका सानिध्य प्राप्त किया है । ये सोचते ही मन में न केवल एक ज्योति का आसार पाता हूँ, साथ ही गर्व का भी अनुभव करता हूँ। मेरा सम्पर्क उनसे पार्श्वनाथ विद्यापीठ के आंगन में ही हुआ और मेरे मन्त्री एवं उनके निदेशक होने के नाते, हम एक दूसरे के सहयोगी रहे और वह सहयोग पारिवारिक मित्रता के रूप में बदल गया। उनकी लगन, विशेषकर अध्ययन और लेखन कार्य ने ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ को शोध संस्थान के रूप में एक उच्च स्तर पर पहुंचा दिया है और उसका गौरव जो आज हम अनुभव करते हैं और संस्था व उनसे सम्बन्ध जोड़ते ही मन और मस्तिष्क ऊंचाई का अनुभव करते हैं। यह सब उन्हीं के लगन व परिश्रम की देन है। १९७९ के पश्चात् पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान (जिस नाम से पार्श्वनाथ विद्यापीठ उस समय जाना जाता था।) एक बड़े उदासीन तथा अंधकारमय जीवन में से निकल रहा था। उनके आगमन के बाद संस्था को पीछे मुड़कर देखने की आवश्यकता नहीं हुई और डॉ० सागरमल जी का दिन-रात का संघर्ष, परिश्रम और लगन ने कुछ ही वर्षों में संस्थान की काया पलट कर दी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की दो-दो टीमों का आगमन, और निरीक्षण होने के बाद, एक ही वाक्य सुनने को मिला कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ एक उच्च कोटि की संस्था है और सर्वथा मान्य विश्वविद्यालय का स्टेटस् प्राप्त करने के योग्य है । ये सब उनकी ही लगन और परिश्रम का परिणाम है । हम उस स्टेटस् को प्राप्त न कर सके, उसका कारण केवल धन का अभाव था, वरना अन्य दृष्टियों से कोई कमी उनको नहीं मिली और प्रशंसा ही उन्होंने की, क्योंकि डॉ० सागरमल जी के लिए संस्था का कारण व उद्देश्य सर्वोपरि रहा है। विद्वान् उच्च कोटि के और भी मिल सकते हैं, पर ऐसी लगन व परिश्रम वाले व्यक्ति का मिलना बहुत कठिन है, जितनी भी व्याख्या व प्रशंसा उनके व्यक्तित्व, साधना, परिश्रम व लगन की करूं, कम है । ऐसे व्यक्ति अगर अमर हो सकें तो संस्था व मनुष्य जाति का बहुत भला हो सकता है, पर यह तो संभव नहीं । अत: वह दीर्घायु हों और संस्था के साथ उनका जो लगाव व परिश्रम है, वह पूरा हो सके, ऐसी ही शुभ-कामनायें अपने हृदय में उनके लिए संजोए हूं। प्रभु उन्हें चिरायु करें । शायद यह कहना गलत न होगा कि संस्था डा० सागरमल जी हैं और डॉ० सागरमल जी ही संस्था हैं' । रूप में भिन्नता हो सकती है - हृदय, श्वास व उद्देश्य में नहीं । शुभम् । *मंत्री, प्रबन्ध समिति, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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