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________________ ये यौन सम्बन्ध स्थापित करना। ३. अप्राकृतिक साधनों से काम-वासना को सन्तुष्ट करना, जैसेहस्त मैथुन, गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन आदि। ४. पर विवाहकरण अर्थात् स्व-सन्तान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह सम्बन्ध करवाना। वर्तमान संदर्भ में इसकी एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना। श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न ५. काम भोग की तीव्र अभिलाषा - ७. उपभोग - परिभोग- परिमाण व्रत-व्यक्ति की भोगवृत्ति पर उपर्युक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत और वर्तमान संदर्भों में अप्रासंगिक कहा जा सके। श्रावक को अपने दैनंदिन जीवन के उपयोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या, मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है— जैसे वह कौन सा मंजन करेगा, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल- मिष्ठान्न आदि का उपभोग करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस प्रकार के और कितने होंगे। वस्तुतः इस व्रत के माध्यम में उसकी भोग-वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक और सादा बनाने का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग- वासना में आकण्ठ डूबता जा रहा है, इस व्रत का महत्त्व स्पष्ट है। जैन आचार्यों ने उपभोग- परिभोग-परिमाण व्रत के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों के द्वारा अपनी अजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों के द्वारा आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है ५. परिग्रह- परिमाण व्रत इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पति अर्थात् जमीन-जायदाद, बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य, पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा रेखा निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करे व्यक्ति में संग्रह की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ जीवन में संग्रह आवश्यक भी है, किन्तु यदि संग्रह वृत्ति को नियन्त्रित नहीं किया जावेगा तो समाज में गरीब और अमीर की खाई अधिक गहरी होगी और वर्ग संघर्ष अपरिहार्य हो जावेगा। परिग्रह परिमाणव्रत या इच्छापरिमाणव्रत इसी संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित करता है और आर्थिक वैषम्य का समाधान प्रस्तुत करता है । यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में कोई सीमा रेखा नियत नहीं की गई है, उसे व्यक्ति के स्व-विवेक पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक संदर्भ में हमें व्यक्ति की आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय है जिससे गरीब और अमीर के बीच की खाई को पाटा जा सकता है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह के आदर्श से आर्थिक-प्रगति प्रभावित होगी। जैन धर्म अर्जन का उसी स्थिति में विरोधी है, जब कि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती हैं। हमारा आदर्श है— सौ हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बाँट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे, किन्तु वह न तो संग्रह के लिये हो और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोक-मंगल के लिये और दीन-दुखियों की सेवा में हो; वर्तमान सन्दर्भ में इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम स्वेच्छा से नहीं अपनाते हैं तो या तो शासन हमें इसके लिये बाध्य करेगा या फिर अभावग्रस्त वर्ग हमसे छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्हल जाना चाहिये । ६. दिक् परिमाणव्रत - तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं भटका है। राज्य की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया, तो धन-लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने। अर्थ-लोलुपता तथा विषय वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश में भटकता है। दिक् परिमाणव्रत मनुष्य की इसी भटकन को नियन्त्रित करता है। गृहस्थ उपासक के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने अर्थोपार्जन एवं विषय भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसीलिए उसे विविध दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मर्यादित कर लेना होता है। यद्यपि वर्तमान संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का . Jain Education International - ३३१ कार्यक्षेत्र सीमित हो जावेगा किन्तु जो वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से अवगत हैं, वे यह भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने देना नहीं चाहता है, दूसरे यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र सीमित हो । अतः इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है। १. अङ्गारकर्म जैन आचार्यों ने इसके अन्तर्गत आदमी को अग्नि प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया है; जैसे—कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय । किन्तु मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि तैयार करना है। २. वनकर्म — जंगल कटवाने का व्यवसाय । ३. शकटकर्म- बैलगाडी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय ४. भाटककर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने का व्यवसाय । ५. स्फोटिकर्म खान खोदने का व्यवसाय ६. दन्तवाणिज्य - हाथी दाँत आदि हड्डी का व्यवसाय । उपलक्षण से चमड़े तथा सींग आदि के व्यवसायी भी इसमें सम्मिलित हैं। ७. लाक्षा- वाणिज्य – लाख का व्यवसाय । - ८. रस- वाणिज्य – मद्य, मांस, मधु आदि का व्यापार । ९. विष वाणिज्य - विभिन्न प्रकार के वियों का व्यापार । १०. केष-वाणिज्य -- बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यापार । ११. यन्त्रपीडनकर्म - यन्त्र, साँचे, कोल्हू आदि का व्यापार । उपलक्षण से अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित है। १२. नीलाच्छनकर्म — बैल आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का व्यवसाय । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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