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________________ ३२४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ और आचारण दोनों ही दिशाओं में तेजी से पतन हुआ है। आज सम्यग्दर्शन : गृहस्थ-धर्म का प्रवेशद्वार हमारी स्थिति यह है कि हमें न तो श्रमण जीवन के नैतिक और श्रावक धर्म की भूमिका को प्राप्त करने के पूर्व सम्यग्दर्शन की आध्यात्मिक मूल्यों का बोध है और न हम गृहस्थ जीवन के आवश्यक प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के अर्थ कर्तव्यों और दायित्वों के सन्दर्भ में भी कोई जानकारी रखते हैं। में एक विकास देखा जाता है। सम्यग्दर्शन का प्राथमिक अर्थ आग्रह आगम-ज्ञान तो बहुत दूर की बात है, हमें श्रावक-जीवन के सामान्य और व्यामोह से रहते, यथार्थ दृष्टिकोण रहा है, वह यथार्थ वीतराग नियमों का भी बोध नहीं है। दूसरी ओर जिन सप्त व्यसनों से बचना जीवन दृष्टि था। कालान्तर में वह जिनप्रणीत तत्त्वों के प्रति निश्चल श्रावक-जीवन की सर्वप्रथम भूमिका है और आध्यात्मिक साधना का श्रद्धा के रूप में प्रचलित हुआ। वर्तमान सन्दर्भो में सम्यक् दर्शन का प्रथम चरण है और जिनके आधार पर वैयक्तिक, पारिवारिक और अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा है। सामान्यतया वीतरागी को सामाजिक सुख-शान्ति निर्भर है, वे दुर्व्यसन तेजी से समाज में प्रविष्ट देव, निम्रन्थ मुनि को गुरु और अहिंसा को धर्म मानने को सम्यक् होते जा रहे हैं और वे जितनी तेजी से व्याप्त होते जा रहे हैं वह दर्शन कहा गया है। यह सत्य है कि साधना के क्षेत्र में बिना अटल हमारे धर्म और संस्कृति के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा खतरा श्रद्धा या निश्चल आस्था के आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। 'संशयात्मा है। जैन परिवारों में प्रविष्ट होता हुआ मद्यपान और सामिष आहार विनश्यति' की उक्ति सत्य है। जब तक साधक में श्रद्धा का विकास क्या हमारी सांस्कृतिक गरिमा के मूल पर. ही प्रहार नहीं है? किसी नहीं होता, तब तक वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता, भी धर्म और संस्कृति का टिकाव और विकास उसके ज्ञान और चरित्र न केवल धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा की आवश्यकता है अपितु हमारे व्यावहारिक के दो पक्षों पर निर्भर करता है, किन्तु आज का गृहस्थ वर्ग इन दोनों जीवन में भी वह आवश्यक है। वैज्ञानिक गवेषणा का प्रारम्भ बिना ही क्षेत्रों में तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा है। आज स्थिति यह किसी परिकल्पना (Hypothesis) की स्वीकृति के नहीं होता है। गणित है कि धर्म केवल दिखावे में रह गया है। वह जीवन से समाप्त होता के अनेक सवालों को हल करने के लिए प्रारम्भ में हमें मानकर ही जा रहा है। किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि धर्म यदि जीवन में चलना होता है। कोई भी व्यवसायी बिना इस बात पर आस्था रखे नहीं बचेगा तो उसका बाह्य कलेवर बहुत अधिक दिनों तक कायम कि ग्राहक आयेंगे और माल बिकेगा, अपने व्यवसाय का प्रारम्भ नहीं नहीं रह पायेगा। जिस प्रकार शरीर से चेतना के निकल जाने के बाद कर सकता। कोई भी पथिक अपने गन्तव्य को जाने वाले मार्ग के शरीर सड़ांध मारने लगता है, वही स्थिति आज धर्म की हो रही है। प्रति आस्थावान् हुए बिना उस दिशा में कोई गति नहीं करता। कुछ व्यक्तिगत उदाहरणों को छोड़कर यदि सामान्य रूप से कहूँ तो लोक-जीवन और साधना सभी क्षेत्रों में आस्था और विश्वास अपेक्षित आज चाहे वह मुनि वर्ग हो या गृहस्थ वर्ग, जीवन से धर्म की आत्मा है, किन्तु हमें आस्था (श्रद्धा) और अन्धश्रद्धा में भेद करना होगा। निकल चुकी है। हमारे पास केवल धर्म का कलेवर शेष बचा है और जैन आचार्यों ने गृहस्थोपासक के लिए जिस सम्यक् श्रद्धा की हम उसे ढो रहे हैं। यह सत्य है कि विगत कुछ वर्षों में धर्म के नाम आवश्यकता बताई, वह विवेक-समन्वित श्रद्धा है। आचार्य समन्तभद्र पर शोर-शराबा बढ़ा है, भीड़ अधिक इकट्ठी होने लगी है, मजमें जमने ने अपने श्रावकाचार में धर्म के नाम पर प्रचलित लौकिक मूढ़ताओं लगे हैं। किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि यह सब धर्म के कलेवर की से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है। किन्तु वर्तमान सन्दर्भो में हमारा अन्त्येष्टि की तैयारी से अधिक कुछ नहीं है। सम्यक् दर्शन स्वयं इन मूढ़ताओं से आक्रान्त होता जा रहा है। आज सम्भवत: अब हमें सावधान हो जाना चाहिए, अन्यथा हम अपने सम्यक् दर्शन को, जो कि एक आन्तरिक आध्यात्मिक अनुभूति से अस्तित्व को खो चुके होंगे। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा इस सबके । फलित उपलब्धि है, लेन-देन की वस्तु बना दिया गया है। आज हमारे लिए अन्तिम रूप से कोई भी उत्तरदायी ठहराया जायेगा तो वह गृहस्थ तथाकथित गुरुओं के द्वारा सम्यक्त्व दिया और लिया जा रहा है। वर्ग ही होगा। जैनधर्म में गृहस्थ वर्ग की भूमिका दोहरी है। वह साधक कहा जाता है कि "अमुक गुरु का सम्यक्त्व वोसरा दो (छोड़ दो) भी है और साधकों का प्रहरी भी। आज जब हम श्रावक धर्म की और हमारा सम्यक्त्व ग्रहण कर लो" यह तो सत्य है कि गुरुजन प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें पहले उस यथार्थ की साधक को देव, गुरु और धर्म का यथार्थ स्वरूप बता सकते हैं, किन्तु भूमिका को देख लेना होगा, जहाँ आज का श्रावक वर्ग जी रहा है। सम्यक्त्व भी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी को दिया और श्रावक जीवन के जो आदर्श और नियम हमारे आचार्यों ने प्रस्तुत लिया जा सकता है। मेरी तुच्छ बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती किये हैं, उनकी प्रासंगिकता तो आज भी उतनी ही है; जितनी उस है कि सम्यक्त्व क्या कोई बाहरी वस्तु है, जिसे कोई दे या ले सकता समय थी, जबकि उनका निर्माण किया गया होगा। क्या सप्त दुर्व्यसनों है। सम्यक्त्व परिवर्तन के नाम पर आज जो साम्प्रदायिक घेराबन्दी के त्याग, मार्गानुसारी गुणों के पालन एवं श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत की जा ही है, वह मिथ्यात्व के पोषण के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं और शिक्षाव्रतों की उपयोगिता और प्रासंगिकता को कभी भी नकारा है। उसके आधार पर श्रावकों में दरार डाली जा रही है और लोगों जा सकता है? वे तो मानव जीवन के शाश्वत मूल्य हैं, उनके अप्रासंगिक के मन में यह बात बैठायी जा रही है कि हम ही केवल सच्चे गुरु होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। हैं और हम जो कह रहे हैं, वह वीतराग की वाणी है। सम्यक्त्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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