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________________ भगवान् महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त और उसकी उपादेयता ३२१ करता है। सन्त सुन्दरदास जी ने इस तथ्य का एक सुन्दर चित्र खींचा रूप देने के लिये गृहस्थ जीवन में परिग्रह-मर्यादा और श्रमण जीवन है। वे बताते हैं कि किस प्रकार यह तृष्णा संग्रह की उद्दाम वृत्तियों में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश दिया गया है। दिगम्बर जैन मुनि को जन्म दे देती है। वे लिखते हैं के अपरिग्रही जीवन का आदर्श अनासक्त दृष्टि का एक जीवित प्रमाण जो दस बीस पचास भये, शत होइ हजार तु लाख मंगेगी। है। यद्यपि यह संभव है कि अपरिग्रही होते हुए भी व्यक्ति के मन कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य, धरापति होने की चाह जगेगी। में आसक्ति का तत्त्व रह सकता है लेकिन इस आधार पर यह मानना स्वर्ग पताल को राज करो, तिसना अधिकी अति आग लगेगी। कि विपुल संग्रह को रखते हुए भी अनासक्त वृत्ति का पूरी तरह निर्वाह 'सुन्दर' एक संतोष बिना, शठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगेगी। हो सकता है, समुचित नहीं है। पाश्चात्य विचारक महात्मा टालस्टाय ने भी How Much भगवान् महावीर ने आर्थिक वैषम्य, भोग-वृत्ति और शोषण की Land Does A Man Need नामक कहानी में एक ऐसा ही सुन्दर चित्र समाप्ति के लिए मानव जाति को अपरिग्रह का सन्देश दिया। उन्होंने खींचा है। कहानी का सारांश यह है कि कथा-नायक भूमि की असीम बताया कि इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है (इच्छा हु आगासतृष्णा के पीछे अपने जीवन को समाप्त कर देता है और उसके द्वारा समा अणंतया) और यदि व्यक्ति अपनी इच्छओं पर नियंत्रण नहीं रखे उपलब्ध किये गये विस्तृत भू-भाग में केवल उसके शव को दफनाने तो वह शोषक बन जाता है। अत: भगवान् महावीर ने इच्छाओं के जितना भू-भाग ही उसके उपयोग में आता है। नियंत्रण पर बल दिया। जैन-दर्शन में जिस अपरिग्रह सिद्धान्त को इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव में संग्रहवृत्ति या परिग्रह की प्रस्तुत किया गया है उसका एक नाम 'इच्छा-परिमाण व्रत' भी है। धारणा का विकास उसकी तृष्णा के कारण ही हुआ है। मनुष्य के भगवान् महावीर ने मानव की संग्रहवृत्ति को अपरिग्रह व्रत एवं अन्दर रही हुई तृष्णा या आसक्ति मुख्यत: दो रूपों में प्रकट होती इच्छा-परिमाण व्रत के द्वारा नियन्त्रित करने का उपदेश दिया है, साथ है-(१) संग्रह भावना और (२) भोग-भावना। संग्रह-भावना और ही उसकी भोग वासना और शोषण की वृत्ति के नियन्त्रण के लिये भोग-भावना से प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरे व्यक्तियों के अधिकार ब्रह्मचर्य, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत तथा अस्तेय व्रत का विधान की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति का बाह्य किया गया है। मनुष्य अपनी संग्रह वृत्ति को इच्छा-परिमाण व्रत के प्रकटन निम्नलिखित तीन रूपों में होता है-(१) अपहरण (शोषण), द्वारा या परिग्रह- परिमाण व्रत के द्वारा नियंत्रित करे। इस प्रकार अपनी (२) भोग और (३) संग्रह। भोग-वृत्ति एवं वासनाओं को उपभोग परिभोग-परिमाण व्रत एवं ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा नियंत्रित करे, साथ ही समाज को शोषण से बचाने के संग्रहवृत्ति एवं परिग्रहजन्य समस्याओं के निराकरण के उपाय लिए अस्तेय व्रत और अहिंसा व्रत का पालन करे। ___ भगवान महावीर ने संग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न समस्याओं के इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने मानव जाति को आर्थिक समाधान की दिशा में विचार करते हुए यह बताया कि संग्रहवृत्ति पाप वैषम्य और तज्जनित परिणामों से बचाने के लिये एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि है। यदि मनुष्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करता है प्रदान की है। मात्र इतना ही नहीं, महावीर ने उन लोगों को जिनके तो वह समाज में अपवित्रता का सूत्रपात करता है। संग्रह फिर चाहे पास संग्रह था, दान का उपदेश भी दिया। अभाव पीड़ित समाज के धन का हो या अन्य किसी वस्तु का, वह समाज के अन्य सदस्यों सदस्यों के प्रति व्यक्ति के दायित्व को स्पष्ट करते हुये महावीर ने को उनके उपभोग के लाभ से वंचित कर देता है। परिग्रह या संग्रह- श्रावक के एक आवश्यक कर्तव्यों में दान का विधान भी किया है। वृत्ति एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में यद्यपि हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि जैन-दर्शन और अन्य भारतीय समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के दर्शनों में दान अभावग्रस्त पर कोई अनुग्रह नहीं है अपितु उनका अधिकार हितों का हनन करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का है। दान के लिये संविभाग शब्द का प्रयोग किया गया है। भगवान् ही एक रूप बन जाता है। अहिंसा के सिद्धान्त को जीवन में उतारने महावीर ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि जो व्यक्ति समविभाग और के लिये जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि व्यक्ति बाह्य परिग्रह सम-वितरण नहीं करता, उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसा व्यक्ति का भी विसर्जन करे। परिग्रहत्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में पापी है। सम-विभाग और समवितरण सामाजिक न्याय एवं आध्यात्मिक दिया गया प्रमाण है। एक ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति विकास के अनिवार्य अंग माने गये हैं। जब तक जीवन में समविभाग का सिद्धान्त, इन दोनों में कोई मेल नहीं हो सकता, यदि मन में और समवितरण की वृत्ति नहीं आती है और अपने संग्रह का विसर्जन अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसका बाह्य व्यवहार में अनिवार्य नहीं किया जाता, तब तक आध्यात्मिक जीवन या समत्व की उपलब्धि रूप से प्रकटन होना चाहिये। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक भी सम्भव नहीं होती। संदर्भ : १. उत्तराध्ययन, ३२/८। २. उत्तराध्ययन, ९/४८। ३. दशवैकालिक, ६/२१॥ ४. धम्मपद, ३३५। ५. उत्तराध्ययन सूत्र १७/११, प्रश्न व्याकरण २/३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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